आँखें
उसकी आँखें, भीड़ में जो कहीं छुपी हुईं थीं, एकटक मुझे ही ढूँढ रहीं थीं । पर नजरें मिलने पे, मानो सहम सी गयीं थीं । संकोच कर रही थीं , उस भीड़ से घबराते हुए , अपने अंदर उठते उफान को छुपा रहीं थीं। जैसे कोई छोटा बच्चा, मेहमान के घर जाने पर मिठाइयों को बड़ी आस लगाये देखता है । किंतु वही मिष्ठान उसे पेश करने पर, दूसरों के सामने अपनी छवि की लाज बचाने हेतु ,सकुचा भी जाता है ।
थोड़ा सा मुस्कराते हुए, शर्माते हुए, फिर वो पलकें उठीं थीं । मन के बाँध को तोड़ते हुए, वो लौट मेरे पास ही आ रहीं थीं। जैसे बच्चा तर्क वितर्क में समय नष्ट ना करते हुए, आग्रह पे मिठाई उठा ही लेता है। उसकी नजरें भी मेरी नज़रों का सलाम लेना चाहतीं थीं , या बस चुपचाप मुझे निहारना । मानो जैसे कुछ सवाल कर रहीं हों, या जवाब की आशा । सहसा मिलने के वादे चाह रहीं हों, या साथ निभाने के इरादे ।
हाँ.....उसकी आँखें, उसके जज़्बात मुझे बता रहीं थीं और मेरी आँखों से बतिया रहीं थीं ।
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