मिट रही है, समय की लकीरें,
और यादों पर धूल जमा है,
पर देख रही है, आँखें तुझको,
ना जाने क्या अच्छा क्या बुरा है,
कुछ जानना है, कुछ भूलना है,
पर कोई ये तो बतायें,
इन पैरों को चलना है या थमना है,
कुछ हक़ीक़त है मेरी,
जो तुम्हें जाननी नहीं है,
कुछ अनकहे लफ़्ज़ों से,
पर्दे अब हमें हटाने नहीं है,
यहीं तो चाहती थी तुम,
की ख़ामोश हो जाएँ हम,
तो व्यस्तता को ओढ़ रहे है,
जैसे की कोई नक़ाब पहना हो,
और जब तक इसे पढ़ोगी तुम,
कोहरे से छँट चुके होंगे हम ।
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