बंद आँखों से एक ख़्वाब सज़ा रहा था,
नींद ना जाने कब टूट गई..
मैं जिंदगी को हस कर गले लगाने ही वाला था,
ना जाने कब जिंदगी मुझसे रूठ गई...
सोचा था एक रात ये बात भी कह पाऊंगा,
होश ना रहा, मैं भीड में अकेला ही रह जाऊंगा..
कुछ बातें हैं जेहन में जो कहने को त्यार था,
कहना तो चाहता था पर कमबख्त दिन इतवार था।
है चेहरे पर मयूसी, आंखों में नामी भी,
उस दिन बोला था मैं पर बातें में लफ्जों की कमी थी...
बंद आँखों से एक ख़्वाब सज़ा रहा था,
नींद ना जाने कब टूट गई..
कोई शिकवे, शिकायतें नहीं है मुझे खुद से या खुदा से,
अपने गिरेबान में देखा तो अपने ही अपने से जुदा थे...
मैं आज भी उसी कमरे में हूँ जहाँ मैं कल था,
मेहज़, फ़र्क इतना है की अंधेरे कामरे में एक चीट उजालों की पा रहा हूं।
एक दलील पेश करूँगा जिस रोज जाना होगा,
एक आखिरी दफा हमारा बात करने के पीछे बहाना होगा...
बैंड आँखों से एक ख़्वाब सज़ा रहा था,
नींद ना जाने कब टूट गई..
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