गमो के गुबार मे एक दिन,भी न टिक पाया मैं
कितने रोज़ हो गए,एक शेर न लिख पाया मैं.
एक तलब थी,जिसकी तलब मुझको चाहिए थी
एक नशा थी तू ,पर वो नशा न कर पाया मैं.
मेरे शायर होने का फिर मतलब ही क्या है
अगर तेरी सादगी को भी ,न लिख पाया मैं.
इतना दर्द होता है हिज्र मे,कहाँ पता था मुझे
उसे जाता देख, होंठ तक न खोल पाया मैं.
कुछ हादसे ऐसे भी हुए,साथ क्या बताए
उससे मिलता तो रहा मगर,न मिल पाया मैं.
बस यूं ही फूल गिरते रहे,दिन बीतते गए
और यादें ताज़ा हुई , कुछ न भूल पाया मैं.
- प्रखर
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