Prakhar Pratap Singh   (Prakhar.P.Singh)
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Joined 1 June 2019


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5 JUL 2020 AT 23:09

वैसे तो हीरे बहुत हैं इस दुनिया में,
पर उस एक हीरे का क्या ही कहना है।
अगर हूं मैं एक बदसूरत का व्यक्ति,
तो मेरे लिए तू उससे बना गहना है।।

अगर ये संसार सारा एक वृक्ष है,
तो तू उसकी वो टहनी है।
बिन प्रेम वर्षा के सुख जाए पूरा वृक्ष,
पर उस पर कली खिलनी है।।

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5 JUL 2020 AT 23:08

जब से इन आँखों ने देखना सीखा,
तबसे तुझे अपने साथ ही पाया है।
जब जब अकेलेपन की धूप पड़ी मुझ पर,
हर बार साथ आकर तूने की छाया है।।

हाँ मानता मैं आज भी नही हूँ,
पर कागज़ों में लिखा है तू मुझसे बड़ी है।
इस बात का अहसास मुझे तब हुआ,
जब पाया हर मुश्किल में तू साथ खड़ी है।।

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5 JUL 2020 AT 23:07

हाँ वो गलती थी मेरी ही,
जब मैंने तुझे अपने नाखून से खरोंचा था।
पर उसके बाद उस बात का क्या?
जब तूने बदले में लगवाया मुझसे पोंछा था।।

चल तेरी हर बात भूल गया मैं,
तेरे हर गुनाह को छोड़ दिया।
पर उठा बात तो कैसे भूलू,
जब तेरा बस गाल खींचा था मैंने और,
तूने कहा मम्मी से मैंने तेरा मुँह तोड़ दिया।।

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5 JUL 2020 AT 23:05

चल आज सब भूलता मैं,
हर लड़ाई जो तूने लड़ी थी।
'मैं बडी हूँ तुझसे'
ये कह मुझसे भिड़ी थी।।। (1)
और चल भूलता हूँ मैं हर वो पल,
जिसमें तूने मेरी मिठाई छीन कर खाई है।
पर उस बात का क्या,
जब तूने मुझे कम मैगी दी,
ये कहकर कि 'ये मैंने बनाई है'। (2)
हर बार जब तूने पूरी चॉकलेट अकेले खाई,
ये कहकर 'ये मेरा गिफ्ट है'।
और वो भी जब तूने पानी की बोतल भराई,
बोल कर ये भी तेरी शिफ्ट है।।। (3)

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14 JUN 2020 AT 22:38

जिस मुस्कान ने हज़ारो का दिल जीता,
उसके पीछे उसने बेशुमार दर्द छिपाया था।
कैसे मान लें हम वो हर गया खुद से,
जिसने ज़िन्दगी से लड़ना सिखाया था।।

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14 JUN 2020 AT 22:31

वो बात ज़रा गुस्से में करता है,
इसलिए तू उससे रूठा है।
ज़रा हाथ थाम सहारा दे उसे,
और देख वो कितना टूटा है।।

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13 JUN 2020 AT 21:08

पर जब मैं पहुंचा वहाँ एक शाम।
देख कर दृश्य वो मेरा मन था परेशान।।
पेड़ पौधे और रमणीय माहौल,
अब भी वहां हर कहीं था।
पर मुझे नज़र नही आया मेरा नन्हा फूल,
शायद अब वो वहाँ नहीं था।।
वो वहाँ नही था वहाँ बेशक,
पर रिश्ता अभी भी अभिन्न था।
किसी और को भी भाया होगा वो अवश्य,
जिसका तरीका मुहब्बत का,
शायद मुझसे भिन्न था।।

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13 JUN 2020 AT 11:20

हर दिन, हर पल, हर एक प्रभात,
वो कोशिश करता था ऊपर जाने की।
कुछ चाह उसमें थी मुझ-सी,
नीले आसमां को पाने की।।
हर एक समीर के झोंके के साथ,
वो सब भूल, मगन हो लहराता था।
और उसे यूँ खुद में मग्न,
मेरा मन बस उसी में रम जाता था।।
अब हर ढलती शाम का वक़्त मेरा,
बस उसे देखने में गुज़र जाता था।
मुझे वो पसंद था शायद इसलिए,
मुझे मेरा प्रतिबिम्ब उसमे नज़र आता था।।

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13 JUN 2020 AT 10:41

एक शाम हरे मैदान में पौधों के संग।
बैठा था मैं अकेला अपने ख्वाबों में मग्न।।
तभी दिखा अचानक एक नन्हा सा फूल।
लहलहा रहा था पवन में, अपने को भूल।।
उस किस्म का फूल वैसे तो यहाँ,
हर गली-चौराहे पर बिकता था।
पर कुछ खास था उसमें,
मुझे उसमे मेरा प्रतिबिम्ब दिखता था।।
सबसे ऊँची डाल पर था भले वो,
पर उसके लिए ये ऊंचाई कहाँ पर्याप्त थी।
देखना था शायद उसे स्थान भी,
जहाँ जाके ये धरती भी समाप्त थी।।

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5 JUN 2020 AT 13:14

एक बार फिर मेरे सपनों में आ,
तुझसे एक सवाल है।
तुझे पाने को सिर्फ तुझे पाना होगा,
या मुझे खुद को भी खोना है।।
तू तो बनारस के घाट सी है,
तुझे पाने के लिए मुझे गंगा होना है।।
हम दोनों अधूरे हैं एक दूजे के बिना,
तुझे ये खुद को समझाना है।
नदियाँ तो बहुत हैं संसार में,
पर बिन गंगा के घाट बनारस के कोई ठिकाना है?

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