बुरा मानना ठीक नहीं, उल्टी-सीधी बातों का,
मग़र जानना जायज़ है, सीधी-सीधी बातों का।
पल में रिश्ते टूट गए, इनको दिल में रखने से,
किस्सा बड़ा पुराना है, छोटी-मोटी बातों का।
उन लम्हों की बातों में, ऐसा भाव समाया था,
दिल बनते देखा मैंने, टूटी-फूटी बातों का।
जो भी तुमको बुरा कहे, उसके मुँह पर हँस देना,
सबसे सीधा रस्ता है ये, टेढ़ी-मेढ़ी बातों का।
दुनिया तेरे लतीफ़ों को, किसने अबतक समझा है,
मैंने मतलब जान लिया बस, मोटी-मोटी बातों का।
वो बातें भी भूल चुके, भूलोगे इक रोज़ 'डिअर',
मैं भी तो इक हिस्सा हूँ, आती-जाती बातों का।-
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From kanpur...
कब ये मेरे दिल से वीरानियाँ जाएंगी,
चेहरे पे धूप होगी जब परछाइयाँ जाएंगी।
मैं आज भी तितली के पीछे दौड़ जाता हूँ,
लगता नहीं हरकतें बचकानियाँ जाएंगी।
तेरे बाद भी कल कोई हसीन हो जाएगा,
कुछ न बदलेगा जब जवानियाँ जाएंगी।
आदत बदल रही है गुलाब की मोहब्बत,
कैसे भला ये चाहतें जिस्मानियाँ जाएंगी।
कुछ भी करे बच्चे को शैतान मत कहो,
जानता हूँ उसकी भी शैतानियाँ जाएंगी।
मैं ही नहीं मर कर बस जाऊंगा 'डिअर',
पीछे कई जनाज़े के कहानियाँ जाएंगी।-
ज़िन्दगी कभी यूँ भी किसीसे वास्ता नहीं करती,
ज़मीर ख़ुदकुशी न करने दे तो,
किश्मत भी हादसा नहीं करती।-
ये हवा कहाँ से आई है कोई बताता क्यों नहीं,
हवा ठीक है तो दिया कोई जलाता क्यों नहीं।
उसे, तुम्हें और मुझे भी अब ये सवाल खाता है,
शख़्स जो कहता है कभी निभाता क्यों नहीं।
जुदाई के बाद से वो इस बात पर नाराज़ है,
गलती क्या थी उसकी मैं समझाता क्यों नहीं।
ऐ दरख़्त क्या उनमें कोई अनबन हो गयी है,
तेरी छाँव में मिलने अब कोई आता क्यों नहीं।
तू आज भी मेरा है ये मैं मानता हूँ सादिक,
मैं अब तलक किसका हूँ आज़माता क्यों नहीं।
हैरान हूँ मैं वक़्त की इस करामात से 'डिअर',
ग़म जो रुलाता था कभी अब चबाता क्यों नहीं।-
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तुम अपनी जगह, अपनी जगह ज़माना ठीक है,
फ़क़त लाचारगी ही में ये बहाना ठीक है।
तुम बदल गए, तुम्हें दुनिया के तौर आ गए,
अपने बदन को लिबास ये पुराना ठीक है।
तुम जानते हो पतंगे ही जलते हैं अक़्सर,
सोंच लो किस हद तक लौ जलाना ठीक है।
रिसते लहू से लाखों में सवाल उठते हैं,
चुपके से वज़ूद को मिट्टी मिलाना ठीक है।
कभी ग़ैर के पैर न झुकाना पड़े सर को,
सो अपने ही पिता के पैर दबाना ठीक है।
भूख शोहरत की 'डिअर' यूँ बेहोस कर गयी,
कौन जाने कब कितना क्या कमाना ठीक है।-
दुनिया की सारी शोहरत, दुनिया का मजमुआ है,
समझो इसे तो जानो, कितना बड़ा जुआ है।
इश्क़-ए-दहर का मैंने, लावा निगल लिया था,
तब से मेरे सुख़न में, यादों का इक धुँआ है।
तेरी खनक को अबतक, ढूंढती हैं गलियाँ,
तेरे लबों का प्यासा, अबतक तेरा कुँआ है।
दिल में छुपा के मैंने, रक्खी है तेरी तस्वी,
उसको निशाँ आएं, पलकों से बस छुआ है।
मेरे लिए तू मेरी, सब ख़्वाईशें हैं जाना,
तू भी मुझे ही चाहे, ऐसी कहाँ दुआ है।
विरला नहीं 'डिअर' मैं, जो बोलता हूँ हंसकर,
उतना झुका वो इंसां, जो जितना बड़ा हुआ है।-
हर दफ़ा इस बात पर, हमसे ख़फ़ा वो हो गए,
कह दिया था इश्क़ में, तुम बेवफ़ा जो हो गए।
और अब वो हाल है, ना कह सकूँ, ना सह सकूँ,
खून सब ख़त में गया, ग़म ला-दवा भी हो गए।-
काश में रह गया कुछ आस में रह गया,
वो दिल भी न ले गयी पास में रह गया।
मिलेंगे कभी किसी मोड़ पर कहा था,
और मैं था कि इसी विश्वास में रह गया।
वो शाम थी तुम जिसमें वज़ूद था मेरा,
फ़िर जुगनू निशा की तलाश में रह गया।
अब देखता हूँ रंगीन जब दुनिया को मैं,
सोंचता हूँ क्यूँ इक लिबास में रह गया।
ये आप ही उठकर तेरा दर छोड़ जाए,
इतना कहाँ दम इस लाश में रह गया।
पी गया इस क़दर ग़म उसका 'डिअर',
इक क़तरा तलक न गिलास में रह गया।-