कभी-कभी छोड़ देना भी
बेहतर होता है जैसे की...,
वो सवाल जिसका जवाब ना हो,
वो हाथ जो वक्त पर साथ ना दे,
वो रिश्ता जो कदर ना करे,
और वो प्यार जो सिर्फ
मतलब के लिए जुड़ रहा जो।-
इस तरीक़े से दिल मे उठा दर्द है,
क्या कहूँ बे-तरह जा-ब-जा दर्द है।
कौन सा ये मेरा नया दर्द है,
एक के बाद फिर दूसरा दर्द है।
दर्द कोई किसी का नही बाँटता,
क्यों जताना किसी को की क्या दर्द है।-
ये दिल मायूस होता है मुझे फिर आज़माता है,
कोई जब याद आए तो बहुत फिर याद आता है।
तुम्हारी शर्ट की रिंकल ,अँगूठे पर वो छोटा तिल,
नज़र से दूर होकर भी नज़र सब साफ़ आता है।
उसे जी भर के भी देखूँ तो मेरा जी नहीं भरता,
यक़ीनन जादू वादू सा कहीं कुछ कर तो जाता है।
बिना उसके भी मैं हरदम उसी के साथ रहता हूँ,
यूँ ही थोड़ी न रह रह कर मेरा दिल भीग जाता है।
समझ से है परे मेरे वही क्यों चाहिये मुझको?
जो अपने तल्ख़ लहजे से मुझे अक्सर रुलाता है।
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बुलबुल तुम मेरे उपवन के
मेरे गीतों के स्वर तान
तुमसे सुरभित मेरा जीवन
कुसुमित है मेरी मुस्कान
सदा सुवासित रहे तेरा कल
मन मे तेरे कभी न भय हो
पंख मिले तेरी मेहनत को
तेरे पथ में सदा विजय हो।!!-
तुम जहां भी होगी बेहतर जगह पर होगी..!
मैं जब तक हूँ, तुम मेरे साथ ही रहोगी..!
ज़िंदगी के इस मोड़ पर भी चलना ही सीख रहा हूँ। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है, पहले तुम ऊँगली पकड़कर चलना सीखाती थी, अब तुमने अपना हाँथ छुड़ा लिया।
फिर भी उम्मीद है और यक़ीन भी, जहां भी लड़खड़ाऊँगा तुम सँभाल लोगी..! हैं ना!
#माँ ♥️♥️-
तुम्हें मालूम है, मैं कहाँ हूँ?
वहीं जहाँ था, वहीं तो हूँ!!
हमेशा से ही! हमेशा के लिए!!
तुमसे ही! तुम तक! तुम्हारे ही लिए!!-
एक धुंध थी, जो छुप गयी।
एक अंधेरा था, जो मिट गया।।
अब सामने बस सच्चाई थी।
जिससे हमने नज़र चुराई थी।।
कौन दुश्मन, कौन दोस्त, सब खाक था।
हर दाओ अब आज़ाद था।।
जैसे अपना कोई गुनाह माफ था।
अब जो राह चला मैं अपने दम पर, अकेला था।
ये हद था जो, उसके सितम का था।।।-
मैं उसी मोड़ से आया हूँ, जहाँ किसी अजनबी ने
तुम्हारा हाँथ थामा था।
जब भी तुम खुले आसमान और
फैली जमीन के बीच में अपनी यादों का
ढ़क्कन खोल कर सुस्ताती हो,
तब धीरे धीरे उतरता हूँ तुम्हारी तहों में
संगीत बन कर।
कभी कभी पाया जाता हूँ तुम्हारी
डायरी के पन्नों में,
नींद का इंतज़ार करती लाल आँखें या
तेरे ख्वाबों के आखरी एपिसोड में।
अगर जानना चाहती हो कि जिंदगी
रिश्ते में तुम्हारी क्या लगती है।
तो पहचानो मुझे...।-
गुल्लक में सिक्कों को भर कर उसकी खन-खन सुनते थे,
क्या दिन थे वो बचपन के जब क्या क्या सपने बुनते थे।
तितली के पीछे भागे थे कच्ची कैरी चुनते थे,
गर्मी की छुट्टी कब होगी ये ऊँगली पर गिनते थे।
अदब, शऊर, सलीक़ा सबसे हम सब थे अनजान मगर,
झूट कहा करते थे माँ से फिर भी कितने सच्चे थे।
याद करें बचपन के दिन तो आँखें भर भर आती हैं,
पापा की हर डाँट को हम सब ख़ामोशी से सुनते थे।
बेपरवाह अलमस्त सी फ़ितरत कितना सादा बचपन था,
कस्तूरी हिरणों सा हम सब चहका कूदा करते थे।-