Prahlad Bhati   (प्रहलाद भाटी)
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Joined 19 January 2019


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2 AUG 2021 AT 10:27

{सच्चे दोस्त..}
हां मै खुदगर्ज था ऐ दोस्त..
जो मैं तुझे भूल गया..
मैं भूल गया..
वो गिल्ली-डंडे...
वो रंग-बिरंगे कंचे...
वो मिट्टी के घरोंदे ...
वो बचपन के खिलौने...
मैं भूल गया..
वो पकडा पकड़ी...
वो आंख मिचौली...
वो साइकिल सवारी...
खेल-खेल में तेरी मेरी...
मैं भूल गया..
वो बचपन की स्कूलें...
वो स्कूलों की किताबें...
वो मास्टरजी की मार...
और वो शिकायतें हजार...
मैं भूल गया..
तुम जैसे कई और दोस्तों को..
जिन्होंने कभी अकेला नहीं छोड़ा मुझे..
पर इच्छा पूरी हो जाने पर
मैंने ही छोड़ दिया और भूला दिया उनकों...
हां मै ही खुदगर्ज था ऐ दोस्त..
जो मैं तुझे भूल गया..
(मित्रता दिवस की शुभकामनाएं)
-प्रहलाद भाटी (नाडोल)

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29 JUL 2021 AT 22:19

{नीलकंठ}
सुन्दर रुप,
आकर्षक रंग,
और लचकदार गर्दन|
माथे पे कलगी,
यूं लग रही अनुप,
मानो कोई हो मुकुट |
लचकदार चाल,
और खुबसूरत पंख,
झूम रहा हवा के संग |
ये पीऊं-पीऊं,
और ये मधुर कंठ,
नीलकंठ के शिखर पर,
आज बैठा सुन्दर नीलकंठ |
-प्रहलाद भाटी (नाडोल)

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28 JUL 2021 AT 22:37

{जवानी ढलती गयी....}
ऐ 'जरा' ! तू बता हमें,
इस वदन में कब, कैसे ?
और कहाँ से आ गयी ?
तेरे इस तरह आने से ही,
धीरे-धीरे ये जवानी ढलती गयी|
ये आंखें अन्दर धसती गयी,
सफेदी बालो की आती गयी,
झुर्रियां गालों पर पडती गयी,
धीरे-धीरे ये जवानी ढलती गयी|
आंखें भी धोखा देती गयी,
कानों की ध्वनि घटती गयी,
दांतों की कमी खलती गयी,
धीरे-धीरे ये जवानी ढलती गयी|
तन की चमडी लटक गयी,
पीडा घुटने की बढती गयी,
कमर दिन-दिन झूकती गयी,
धीरे-धीरे ये जवानी ढलती गयी|
ऐ 'जरा' ! तू बता हमें,
इस वदन में कब, कैसे ?
और कहाँ से आ गयी ?
तेरे इस तरह आने से ही,
धीरे-धीरे ये जवानी ढलती गयी|
-प्रहलाद भाटी (नाडोल)

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23 JUL 2021 AT 23:31

{चंद्रशेखर आजाद}
इन गालों की लाली देख..
और विशाल ललाट देख..
टेढ़ी भौहें विकराल देख..
मूछों पर दे रहा तांव देख.. |
कंधे पर जनेऊ डारी देख..
कमर पे गोली भारी देख..
हाथ में पिस्टलधारी देख..
आजादी का नायक देख..|
सिर पर जिम्मेदारी देख..
देश का क्रांतिकारी देख..
आजाद की तू चाल देख..
दुश्मनों का तू काल देख..|
और सीना फौलादी देख..
स्वतंत्रता सत्ताधारी देख..
आजादी का आजाद देख..
भारत मां का लाल देख.. |
-प्रहलाद भाटी (नाडोल)

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22 JUL 2021 AT 15:47

{डर लगता हैं मगर..}
डर लगता है ऐ जिंदगी..
तेरी किताब के पन्नों को खोलने से |
डर लगता हैं उलझ ना जाऊँ...
अपने ही अतीत के सवालों से |
डर लगता हैं मुश्किल हालातों से...
जो स्वयं मैंने ही खड़े किये थे |
डर लगता हैं ऐ जिदंगी...
जब सपने अधुरे रह जाए,
ख्वाहिशें टूटकर बिखर जाए,
तब केवल निराशा ही हाथ आए |
डर लगता हैं एकदम से...
अकेले हो जाने के एहसास से |
मगर ऐ जिंदगी...
तुझे अंत तक पढने का मैनें लक्ष्य बना रखा हैं |
समझ चुका हूँ मैं ...
उलझकर ही सुलझाऊंगा अनसुलझे सवाल |
लड लूंगा मुश्किल हालातों से भी मैं...
क्योंकि वक्त पर भरोसा हैं मुझे |
क्योंकि जिंदगी के ऐसे मोड से भी गुजरे हैं...
कि अकेले रहना ही सबसे ज्यादा सुकून देता है |
भले ही डर लगता हो ऐ जिदंगी...
तेरे सवालों से मुझको...
मगर क्या करे...
तेरे सवालों के जवाब देना भी जरूरी हैं |
भले ही डर लगता हो ऐ जिंदगी...
तेरी किताब के पन्नों को खोलने से...
मगर क्या करे...
मुझे तेरी अधुरी कहानी पढना पसंद नहीं हैं |
डर लगता हैं कभी-कभी...
मगर कभी-कभी... |
-प्रहलाद भाटी (नाडोल)

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17 JUL 2021 AT 23:34

हे उम्र...
पहली बार रोने से लेकर,
मेरी आंखें खुलने तक,
मा.. मा.. पा.. पा.. जैसे
आधे अधुरे शब्दों में भी
तेरा असर दिखता रहा....|
घुटनों पे चलने से लेकर,
अपने पैरों पे चलने तक,
खेल खिलौनों की जिद्द में
अपने यारों से लडने में भी
तेरा असर दिखता रहा....|
प्राथमिक शिक्षा से लेकर,
उच्चतम शिक्षा पाने तक,
यूं बदलते जीवन के रंग में
अपने आप को बदलने में भी
तेरा असर दिखता रहा....|
घर गृहस्थी संभालने से लेकर,
गृहस्थी से विदा लेने तक,
चेहरे पर झुर्रियाँ पडने पर
हाथ में लाठी थामने में भी,
तेरा असर दिखता रहा....|
जन्म से मृत्यु तक मुझे,
हे उम्र ! तेरा असर यूँ ही
ताउम्र मेरे जीवन में मुझे दिखता रहा....|
-प्रहलाद भाटी (नाडोल)

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25 DEC 2020 AT 23:08

मुश्किल से जीवन संभला है,
थोडी खुशी तो थोडा डर है,
कही डगमगा न जाए कदम,
बडी गोल घुमावदार डगर है।
अब तो बिना किसी से डरे,
बस यूं ही सफर चल रहा है,
जिन्दगी के इस सरगम पर,
बस मेरा ही गाना बज रहा है।
-प्रहलाद भाटी (नाडोल)

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24 DEC 2020 AT 20:07

जितनी खामियाँ
मुझमें गिनाई गई,
सबमें तेरे न होने के
यूं ताने सुनाए गए।
न जाने कैसी कसक
बैठ गयी इस दिल मे,
पास सब कुछ है मेरे,
गम जरा भी नही।
फिर भी न जाने क्यूं,
कुछ कमी सी लगती है।
अब तो उदासी भी
मानो लत सी बन गयी है,
जो सुख में भी वो
दुख का पता पूछती है।
और आप है कि खामखां
बडी बडी बात करते है।
-प्रहलाद भाटी (नाडोल)

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23 DEC 2020 AT 18:58

इंतजार के बाद भी,
इन्तहा खत्म नही होती।
दिल मे दबी बात भी,
जब जुबां पर नही होती।
देखना चाहती आँखें उसे,
फिर भी देखने को तरस जाती।
मैं बढाता कदम उसकी ओर,
वो चार कदम आगे बढ जाती।
मेरी और किस्मत की,
यूं ही हर रोज एक जंग होती।
मैं जीत ना जाऊँ किस्मत से
इसीलिए रोज वो मुझसे जीत जाती।
समझाऊँ कैसे इस किस्मत को,
जब सपना पानी बन बह जाता है।
तब दिल के अरमां दिल में ही,
अकसर दबकर मेरे रह जाता है।
-प्रहलाद भाटी (नाडोल)

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23 DEC 2020 AT 15:01


धर्म की और अधर्म की,
सत्य की और असत्य की,
न्याय की भी, अन्याय की भी,
जन्म की भी और मृत्यु की भी।
तेरी भी और मेरी भी,
अपनों की और परायो की,
समाज की भी और राष्ट्र की भी,
शोषित की भी और पोषित की भी,
हार की और जीत की,
प्रेम की और सघर्ष की,
मान की भी, अपमान की भी,
और वीर शहीदों के बलिदान की भी,
इन सब सारी बातों को,
इन सब सारे ख्वाबों को,
संजोए बैठी वो भीतर को,
कभी छूकर देखिए इन किताबों को।

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