Pragya Choudhary   (pragyaa)
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I like it who I become in the moment when I write . That is why , I write.
Joined 1 September 2017


I like it who I become in the moment when I write . That is why , I write.
Joined 1 September 2017
14 SEP 2019 AT 14:46

उसकी रूह अंग्रेज़ी सी रूमानी है
जितनी जटिल उतनी ही मनोरम
ठीक जेन ऑस्टेन की रचनाओं की तरह
कि एक आँख शब्दकोश पे ऐसे टिकी हो
दूसरी किताब से हटने ना पाये
उसकी शख्शियत उर्दू सी खूबसूरत है
पहले इश्क़ की तबियत जैसी
मानो अभी उलझे से नज़्म उसके जो किनारे रख दूँ
तो ग़ज़ल बन जायें
सार में छुपे उसके सारे बोध मुझे हिंदी से सुलझे महसूस होते हैं
जैसे अनजाने शहर में किसी पुराने चेहरे ने
अपनी भाषा में मेरा हाल पूछ लिया हो
और इतनी सरलता और सुंदरता से
बेबाक वो बातें भी खुल रही हों
जो अब तक असहज थे कई हालातों में

मैं कैसे कहूँ दूँ की उसका कौन सा गुण श्रेष्ठ है
या किस गुण से मुझे अधिक स्नेह है
वो साहित्य है , अभिसरिणी है इन तत्त्वों की
मुझे उसके हर एहसास से प्रेम है !





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17 NOV 2020 AT 17:58

वो बातें कैसी होती हैं,
जिनकी दहलीजें तय होती हैं उनके शुरू होने से पहले?
वो एहसास कैसे होते हैं,
जिनको उनके दायरे का अंदाज़ा होता है?
बातों के सिलसिलों में,
ज़ज़्बातों के बेबाक़ खुलते समय
कोई आँख दिखाकर ,
भौहैं चढ़ाकर संभालता क्यों नही?
रोकता क्यों नही?
क्यूँ बह लेने देता है?

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23 FEB 2020 AT 21:26


उससे उधार में ली हुई एक शाम खर्च की थी मैंने
बकाये कुछ वक्त में,
उसके आधे पढे क़िताब के बुकमार्क वाले पन्ने को बीच ही से पढ़ा था
और उसकी जूठी आधी सिगरेट का एक कश लिया था
शौक तो कुछ ख़ास नही था , मगर इत्मिनान आज भी है




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22 FEB 2020 AT 1:41

मैं कदमों से तो ठीक ठाक ही टहल लेती थी
तुम्हारे इश्क़ के मंज़र में,
आये दिन उड़ने लगी हूँ
ये बताओ , तुमने जो आखिरी बार छुआ था
क्या कहीं चुपके से मख़फ़ी पंख लगा दिए थे मुझमें ?

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16 FEB 2020 AT 10:11


आज तुम्हारे पीछे पहली बार बाइक पे बैठे हुए
मेरा दिल उसके पहिये से कहीं ज़्यादा तेज़
एक जोख़िम भरे रफ्तार पे दौड़ रहा था
डर भी था कि कोई देख ना ले
और एक बेपरवाही भी थी कि कोई देख भी ले , तो क्या !
एक बड़ी अजीब सी ग़फ़लत की हिम्मत और हसरत हुई थी मुझे
और फिर मैंने तुम्हारे कान में एक गाना गुनगुनाया था जो अधूरा था
उसे पूरा करने और अगले को अधूरा छोड़ने
मिल लेंगे दुबारा इसी तरह,
एक नियम मैं तोड़ूंगी, एक तुम तोड़ना



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4 FEB 2020 AT 17:01

खीझ गयी हूँ शायद
ख़फ़ा भी हूँ
किससे नही पता
यकीनन खुद ही से
वज़ह तो है
लफ़्ज़ों में मग़र , एक कोताही सी है
किसी ने यूँ ही पूछ लिया तो फिर खीझ उठूंगी
और कह दूँगी , एक छोटा सा 'स्ट्रेस' है
मुस्कुरा के बात करने की तरकीब अच्छी है वैसे
किसी ने मुस्कुराते हुए भी जो भाव टटोल लिया
तो थोड़ा और हँस के बात बदल दूँगी
बस सोचती हूँ कि भूले भटके ही किसी जानने वाले ने
हाथ को हल्का दबा कर , आँखों में देखते हुए हाल पूछ लिया
तो क्या कहूँगी ?
नज़रें चुरा कर, हाथ छुड़ा कर , कैसे भागूँगी ?

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2 FEB 2020 AT 14:16


तुम्हे गए वाकई एक लम्बा वक्त बीत गया है
बदलाव के गहरे छीटें पूरे शहर पर मुंतशिर हैं इस कदर
कि अब वो मैला है या एक नए रंग का ,
कोई कह नही सकता
तुम्हारे मकां के आगे एक मकां बन गया है ,
मैंने देखा है,
चाँद ज़रा बाज़ू से खिसक के उठा करता है अब

तारीखें महीनों में
महीने बरसों में
और बरस दशक में मादूम हो गए हैं
एक मुद्दत के बाद आज ,
तुम्हारी बात छिड़ी है,
किसी ने हाल पूछा है तोह होश आया
तुम्हे रुख़सत करने गए थे जिधर ,
उधर से हम ही लौटे नही अब तक
बस यही रह गया है, लौटना ।
बस एक हम ही तरमीम-ए-मुंतज़िर हैं

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24 JAN 2020 AT 16:10

अनगिनत सदियों की बे हिसाब यादें
यादें , तारीखों और सालों के
मयखाने में मखमूर पड़ी हुईं
नशे में बड़बड़ाती हैं कुछ कुछ,
बातों का जिनके कोई टोह नही लगता
यादें , दरारों के मरम्मत की
झूठी आस लगायी हुईं
फ़सुर्दा सतहों पे जिनके
जिंदगी बस चोट खाती है
यादें , दफना दिया गया जिन्हें
उनके वफ़ात से पहले ही ,
जिंदा रूहें जिनकी अब
रोज़-ए-अदल की तलाश में हैं
थीं ऐसी कुछ यादें भी जिन्होंने
खुदकुशी कर ली शायद
जिस्मों से अपनी उन्होंने उम्र-ए-रफ़्ता को निकलते देखा होगा ,

यादें ग़र्क़ कैसे होती होंगी भला
तकमील के उनकी , यही एक ज़रिया रहा होगा

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19 JAN 2020 AT 12:46

रेलगाड़ी की खिड़की से एक बार मेरी नज़र चाँद पे पड़ी थी
और देखते देखते वो मेरे साथ केरल से दिल्ली पहुंच गया
सारे मकान औऱ पेड़ तो पीछे छूटते जाते थे
बस वो एक चाँद ना जाने किस गाड़ी में बैठ के इतनी दूर तक आया था !

फिर एक दिन छत पे लेटे हुए
मेरी नज़र दुबारा उस चाँद पे पड़ी
वो बादल के एक टुकड़े के संग धीरे-धीरे टिसकता जाता था
क्या इसी बादल के टुकड़े पे बैठ कर चाँद केरल से दिल्ली आया था ?
तुमने सोचा क्या ऐसा कभी ?











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16 JAN 2020 AT 17:08

इतिहास ने तो काफी किस्से गढ़ रखे हैं
मेरे ख़ातिर अपने स्याह पन्नों में
कि ये मुमकिना होगा जो मैं होठ सिले रखूँ
और खौफ़ में ही जियूँ,

किसी का सर कटा था
कोई नीलाम हुआ था
किसी का घर उजड़ा था
किसी का देश छुटा था
किसी की कलम टूटी थी
किसी को फाँसी हुई थी

गर फिर भी जो मैं डटी दिखूँ
सड़कों पे उतरूँ
आँखों में आँखे डाल के बात करूं
सच लिखूँ और विरोध करूँ
तो जान लेना ,
मेरे इरादे तुम्हारे उसूलों से गहरे थे
मेरा इंकलाब तुम्हारे खौफ़ से बड़ा था





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