तुम्हे गए वाकई एक लम्बा वक्त बीत गया है
बदलाव के गहरे छीटें पूरे शहर पर मुंतशिर हैं इस कदर
कि अब वो मैला है या एक नए रंग का ,
कोई कह नही सकता
तुम्हारे मकां के आगे एक मकां बन गया है ,
मैंने देखा है,
चाँद ज़रा बाज़ू से खिसक के उठा करता है अब
तारीखें महीनों में
महीने बरसों में
और बरस दशक में मादूम हो गए हैं
एक मुद्दत के बाद आज ,
तुम्हारी बात छिड़ी है,
किसी ने हाल पूछा है तोह होश आया
तुम्हे रुख़सत करने गए थे जिधर ,
उधर से हम ही लौटे नही अब तक
बस यही रह गया है, लौटना ।
बस एक हम ही तरमीम-ए-मुंतज़िर हैं
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