बुढापा और बंटवारा
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ऐ दिल तेरी दिक्कत क्या है
पल में हंसे पल में ही रोये
आज बता तेरी जरूरत क्या है
हमेशा करता अपनी मनमानी
दिमाग की कभी तु सुनता कहां है
चिथड़े कर देते तेरे ये दुनियावाले
सोचता फिर तु तेरा बसेरा कहां है
ठगे जाये फिर भी करता है भरोसा
ठोकर खा के भी तु प्यार का है प्यासा
बेतहाशा फिर भी थोड़े आश है लगाए
कभी न जान सका कौन अपने कौन पराये
पहचान खुद को तेरी हकीकत क्या है
इस जहां में तेरी अमानत क्या है
संभाल ले संवार ले अहिस्ता खुद को
यूं बिखरते रहने की जरूरत क्या है-
ऐ हवा, छू लेना तु मुझे..... पहले घुल कर आ मेरे महबूब की सांसों में
आज फिर से उसकी याद आयी है.......
इस बारिश से भीगी मिट्टी से भी आज उसकी खुशबू आयी है......
इन लहराती हसीन बादियों में भी दिख रहा है उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा
सुखे इस दिल में आज फिर से बहार आयी है.....❤️-
शाम जैसे कोई नदी है
जो बहती चली जा रही है रात के विशाल समंदर में
और फिर उठतीं हैं लाखों छोटी बडी लहरें.....
कुछ सपनों के... कुछ अपनों के....
खुशी और गम की यादें झाग बन कभी आती हैं किनारे पर तो कभी फिर से मिल जाती हैं उन्हीं लहरों में....... जैसे खेल रही हों घुमर बीच भंवर में...... या फिर खेल रही हों कोई अनोखा खेल....
जमीन को चूमती तो कभी आसमान को निहारती....पत्थरों से टकराती तो कभी जलजीवों संग गुनगुनाती....अपनी बेचैनी से अस्थिर हो उठतीं मिलने को उस चांद से जिसकी पूरी दुनिया का़यल है..... पुछतीं कभी उन मछुआरों से तो कभी उन तैराकों से तो कभी उन गुजरतीं हवाओं से... चांद तक पहुंचने का रास्ता.... कभी प्यार से तो कभी गुस्से से......
अल्हड़ सी लहरें कुछ इस तरह से जमा कर लेतीं हैं आंसू कई जन्मों के कुछ खुशी के... कुछ गम के....और बना देतीं हैं उस खारे समंदर को और भी ज्यादा खारा...जो बरसों प्रतीक्षा के बाद बन जाता है एक विशाल महासागर......-
हरपल को खुलकर जीना है
हंसते हंसते कभी रोना भी है तो
रोते रोते कभी हंसना है
गिरते लडखडाते चलना भी है
तो कभी चलते चलते गिर जाना है
जीवन जीने की यही कला
जीवनभर हमें सीखना है
मसला नहीं कोई नजदीकी या दूरी की
दिल में बस प्यार ही होना है
सद्भाव हरदम रखना है मन में
सबको एक दिन जाना है
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जब मैंने तुम्हें पा लिया है ।
शरीर से ना सही, आत्मा में बसा लिया है ।
ये जरूरी तो नहीं कि तुम सामने ही रहो,
दूर हो के भी मैंने तुम्हारा साथ पा लिया है ।
मिलन जरूरी नहीं इस अनंत प्रेम में,
अपने अंतर्मन में मैंने तुम्हें जी लिया है ।-
जिंदगी के गुल्लक में खुशियों के सिक्के तो रखे हो ना.....?
कुछ नये पूराने सिक्के सुकून के भी इसमें रखे हो ना...?
क्या पता कल को जरूरत पड़ जाये
तुम्हें या फिर किसी ओर को.....
थोड़ा थोड़ा करके तुम इस गुल्लक को भर रहे हो ना....?
कुछ तुम्हारे... कुछ अपनों के... कुछ तुम्हारे सपनों के
कुछ फटी हुई तो कुछ नई सी उन यादों और सपनों के नोटों को तुम इसमें संजोए हो ना......?
इन चौबीस सालों में कभी ऐसा भी हुआ होगा कि ये नोटें भीग गई होंगी
तुम उन भीगे नोटों को उम्मीद की धूप से सुखा कर फिर से समेटे हो ना......?
ऐसा तो नहीं कि ये सारे सिक्के और नोटें तुम्हें तोहफे में ही मिले होंगे
थोड़ा कुछ लोगों के दिये गए तो ज्यादातर तुमने खुद से ही कमाये होंगे
बड़ी जतन और लगन से किया होगा तुमने ये सारी बचत
लेकिन क्या पता कभी छा भी सकता है अंधेरा...
थोड़ी सी दुआएं भी तुम कमाये हो ना......?-
ना छोड़ना तू कभी हाथ मेरा , सिवाय तेरे मेरा कोई नहीं है
साथ चलना मेरे पूरी जिंदगी, हमसफ़र भी मेरा कोई नहीं है
हूं मैं सबसे पराई, ना है कोई अपना
आंखों में तू है हमेशा, ना है कोई सपना
ना समझे कोई जैसे तू समझती, अब मुझे किसीसे उम्मीद नहीं है
मेरे रोने से तू जैसे साथ रोती, सिवाय तेरे हमदर्द कोई नहीं है
मां तू एक आस है, तू ही मेरा विश्वास है, मेरा तू ही एक सहारा, तू ही मेरी हर श्वांस है
ना रूठना कभी मुझसे तू, सिवाय तेरे मेरा कोई नहीं है
ना जाना दूर मुझसे कभी, दूरी सबसे जन्मों की हो गई है
मीठे बोल कर तो सबने मुझको खुब है लूटा
जिसको भी कभी अपना माना साथ उससे है छूटा
हर कोई बदले पर कभी तू ना बदली, बिखरी सी मुझको हरपल समेटे हुई है
मैंने सबको चाहा सिवाय तेरे ओ मां फिर भी तू मुझको कितना चाहती है
कभी डांटा कभी मैंने रूठा तुझसे, तेरी आंचल में फिर भी मुझे छूपा रखी है
साहस तू मेरा और मेरी तू ही शक्ति है, मेरी खुशी भी तू ही, हर दुःखों की तू ही मुक्ति है
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कमीं तो कुछ नहीं है फिर भी कुछ कमी सी लगती है
चमकतीं आखों में मेरे कुछ नमी सी लगती है
यूं तो बड़ा रहम है खुदा तेरा मुझपर, पर पता नहीं क्यों थोड़ी बेरहमी सी लगती है
सबको मेरी सारी रातें शबनमी सी लगती है
हर सुबह मेरी गुलशन बनी कोई जमीं सी लगती है
ऐ इश्क मेरे, तेरे इश्क़ के क्या कहने....ये इश्क़ भी तेरा मुझपे मेहरबानी सी लगती है
पुछता ये नज़ारा मुझसे.. तू क्यों सहमी सी लगती है
महफिल में तो महजबीं बेशक रूहानी सी लगती है
दफनायी तू है सीने में कितने राज़ों का पिटारा... किरदार तेरी नाज़नीं कुछ जानी पहचानी सी लगती है
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बारिश को तरसती रूह जमीं की
जैसे मैं तरसती तुझे
जैसे बरखा बन के बादल भीगाता है जमीं
वैसे आ भीगा दे तू मिझे
तपती धूप से है झुलसी हुई जमीं
दूरियों से मैं झुलसी हुई हुं
बन तू भी कभी मेरे लिए बरखा
मैं तेरी जमीं बन गई हुं
बहुत हुआ अब ये तड़पना तड़पाना
कस के गले लगा ले
जमीं आसमां की दूरी ना अब नाप
तू आ या फिर तेरे पास बुला ले
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