उम्रभर एक आश्रय की चाह में,
उम्मीदों के कई महल तोड़ने पड़े।
ऐ! यौवन तेरे क्षणिक लालच में,
अपने सारे खिलौने छोड़ने पड़े।
-
First Read me plzz..
If you like my words then follow ... read more
नित झड़ते जाते पौध सपन के
नए अंकुर कब निकलेंगे?
उलझे पथ कब सुलझेंगें?
-
सफर ✍️
कुछ चलते ही, झटके महसूस हुए,
गाड़ी रुक जाती है।
चिंता बढ़ जाती है।
दूर पंप से तेल लाए फिर बढ़े।
आगे मदद के इशारों में, थे कुछ हाथ खड़े।
उन्हें बिठाया और गन्तव्य पर छोड़ दिया।
गाड़ी को फिर अपने रस्ते मोड़ लिया।
फिर चलते ही कुछ,
गाड़ी झुकने लगती है।
साँस रुकने लगती है।
पंचर टायर में तनिक मशक्कत लगी।
कुछ दूर झूम के फिर से गाड़ी चली।
सहसा फिर झटके तेज हुए,
देखा तो रोड पे गड्ढे थे।
जो दूर तलक भी दिखते थे।
अब रात जवान हो रही थी।
हिम्मत लगभग पतन में थी।
मैंने और कोलाहल ने एक काम किया।
कुछ समय वहीं विश्राम किया।
कई पहर ढले पर,
गाड़ी अभी रुकी है।
हाँ, ये गाड़ी नहीं, जिंदगी है।-
✍️एक सवाल, तुमसे ✍️
हों कांटे पुष्पों की छांव में,
तितली विषरस को चूस रही हों।
दिन थका थका जब दिखे तुम्हें,
और शाम की सांसे टूट रहीं हों।
तब जग की थकन मिटाने को,
दिनकर जैसे हो ढले कभी?
क्या खुद से तुम हो मिले कभी?
रात हो सन्नाटों की बाहों में,
नींदों की अंखियाँ अलसायीं हों।
लेटे लेटे जब गहन सोच में,
आँखों में झीलें भर आयीं हों।
तब दर्द भरी सिसकी लेकर,
ख्वाबों के संग, हो चले कभी?
क्या खुद से तुम, हो मिले कभी?
हो भरा विषाद जब हृदय में,
रोने को अम्बर मचल रहा हो।
चहुंओर मरीचिका दिखती हो,
और रेत सा जीवन फिसल रहा हो।
फिर भी झूठी मुस्कान लिए,
जग मरुथल में हो खिले कभी?
क्या खुद से तुम हो मिले कभी?
-
जिंदगी के जाल से छूट जाने दे।
तू मना ले मुझे या रूठ जाने दे।
गोद में तेरी चैन से सोने दे मुझे,
या कि बाहों में दम टूट जाने दे।
© Pradeep Singh "R@z"
-
दौड़ता हुआ दूर निकल आया हूँ,
ढूँढते हुए खुद को, खो गया हूँ मैं।
क्या...? हो गया हूँ मैं।
-
किस खोज में प्रतिदिन चलना था,
बस इसी प्रश्न का हल ना था।
क्यों आज भी खोता चला गया
जीवन में जबकि कल ना था।
बस इसी प्रश्न का हल ना था।
हर उम्र से दो दो हाथ हुए।
न चाह के हम फिर साथ हुए।
दिन - रात सुलह समझौतों में,
जीवन से कटु संवाद हुए।
उम्मीद लिए खुद से मिलने,
क्यों रोज ही मीलों चलना था।
बस इसी प्रश्न का हल न था।
हर तरफ राह चौराहा थी,
किस राह को आखिर चुनना था।
किस खोज में प्रतिदिन चलना था,
बस इसी प्रश्न का हल ना था।-
न दिन रहा न रात, जीवन साँझ जैसा है।
दुःखों का नीर संजोए नदी के बाँध जैसा है।
सभी को चाँदनी देना तो जैसे शौक़ है शायद,
मगर यह खुद में ही अ-प्रकाशित चाँद जैसा है।
© Pradeep Singh "R@z"
-
जन्म हुआ किस हेतु इसी का पता नहीं।
रंगीन अँधेरे वाला, जग भी जंचा नहीं।
चहुंओर आंधियांँ अफवाहों की उठी हुई,
हर शख्स बहा, कोई भी इससे बचा नहीं।
-
खुद से बातें करना अच्छा लगता है।
खुद को खुद ही सुलझाना अच्छा लगता है।
निर्मम दुनियादारी से अब किनारा करके,
अपने अन्दर आना जाना अच्छा लगता है।-