Pradeep Kumar ( भव्य )  
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Joined 13 August 2019


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मैं बेबस अपने दुखों का,
शौक भी न मना सका।
और वो मुझे कायर,
बतला के चला गया।

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!! ज़िन्दगी के सफर में !!

एक सवाल मैं ही हूँ,
मैं कहां अब ख़ुद में हूँ,
ज़िन्दगी के सफर में,
तमाशबीन के बाज़ार में हूँ।

बाहर से दिखने वाला मजबूत
अंदर अंदर खोखला सा हूँ
समय के इस कालचक्र में
तमाशबीन के बाज़ार में हूँ।

जो गुज़र गई ज़िन्दगी
उसी के ख्यालों में हूँ
भागती दौड़ती हांफती ज़िन्दगी में
तमाशबीन के बाज़ार में हूँ।

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कल-कल करते लहरों संग बहना
होकर मन मस्त मग्न में
लहरों के बीच मनमर्ज़ीयां करना ।

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जलती हुई चिराग सी है स्त्री
बदलाव की प्रवृत्ति सी है स्त्री

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ज़िन्दगी के फिर से उसी पड़ाव पर ही खड़े हैं,
तम के सिवाय जहां कुछ नहीं दिखाई दे रहें हैं।

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दहलीज़ पर बैठकर, ये आंखें मेरे,
निहारता रहता है, सिर्फ तुम्हें..!
छोड़ दो न अब तुम अपनी गुस्सा,
लौट आओ अब तो दहलीज़ पर मेरे..!!

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बहुत दिनों के बाद,
देखूं जरा मैं,
कौन आया है,
मेरे दहलीज़ पर।

करने दो आज,
मुझे स्वागत,
रोली चंदन कुमकुम,
लाओ थाल में सजाकर।

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मेरे परेशानियां पर, तूने तोहमत लगा दिया,
यही फरामोश तेरी, पसंद नहीं मुझको आया।

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मेरे मन में उठे हजारों सवालों का द्वंद्व तुम हो,
द्वंद्व की छंद के लय में मेरी पहली कविता तुम हो।

मस्तिष्क मेरा जिसमें उलझता रहा मैं बार-बार,
सरिता सी सरस जल की अमृत तुल्य तुम हो।

व्यर्थ में मैं करता रहा जीवन में मोह का गेह,
जीवन के व्याकुलता में अकिंचन सिर्फ तुम हो।

स्वप्न के ख्यालों में जब कभी निखरने लगा मैं,
प्रदीप के प्रेम का मन की भाव में प्रेमिका तुम हो।

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छोड़कर शिकवा गिला ए ज़िन्दगी मेरे पास आ,
आकर मेरे हृदय में बस अब तू ही तू समां जा ।

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