चल आज फिर शुरू करते हैं बचपन की वो दौड़,
इस दौर से घर के आँगन की वो छावं तक।
देख शाम फिर अंधेरा ले कर आ रही है,
सूरज की ढलती किरण साथ छोड़ के जा रही है।
गर्म हवा भी रुख बदल कर ठंडी होती जा रही है,
गम ए बारिश आँखों के रास्ते बरसने जा रही हैं,
रिश्तों के धागे टूट कर बिखरते जा रहे हैं
यादों का झरोखा फिर खुलती जा रही हैं,
भूली-बिसरी बातों की लहर खीची जा रही हैं।
जानता हूँ सफ़र अभी बहोत लम्बा और पथरीले हैं,
पर उम्र की बेड़ियाँ धीरे-धीरे अब जकड़ती जा रही हैं,
वक्त की रफ़्तार भी बस अब आगे धकेलती जा रही हैं
आहिस्ते-आहिस्ते से डर का साया बढ़ती जा रही हैं।
कहीं घर की याद बस अब यादों में ही ना रह जाए,
इस उलझन में जिंदगी और उलझती जा रही है
ये लम्बी डगर, सफर बन कर ही ना रह जाए,
चल आज फिर शुरू करते हैं बचपन की वो दौड़,
इस दौर से घर के आँगन की वो छावं तक।-
हर मुनाशीफ चेहरे पे फ़िक्र की वो लकीर देखी है मैने,
कभी कम तो कभी ज्याद लकीर बदलते देखी है मैंने,
देखी है बदलाव की बयार मौसमी के करवटों में भी,
हाँ देखी है बदलाव उम्र के हर बदलती तस्वीरों में भी|
झरनों को नदियों में,
नदियों को समंदर में मिलते देखा है,
झूठ को सच के चादर ओढ़े,
किताबों में छपते देखा है|
जिंदगी भर जिसे मैने सच का आईना समझा,
उसका सब रूप मिटटी का धरोहर निकला,
तन्हाइयों में जिसे याद कर दिन गुजरता रहा,
वो तो भीड़ में अक्सर मुझे तन्हा करता रहा|-
मोहब्बत
जिंदगी एक ट्रेन की तरह है,
जिसमें हजारों लोग आते है,
और हजारों लोग चले जाते है।
पर कुछ लोग होते है-
जो दिल में उतर के, दिमाग पे छा जाते है,
जिसकी हर अदा नजरों में समां जाती है,
जिसकी हर बातें कानों में नया रस घोल देती है,
जिसकी हर हँसी चेहरे की मुस्कान बन जाती है,
जिसकी हर आंशु दिल को चिर जाती है,
जिसकी यादे रातों में सोने नहीं देती है,
जिसकी आने की आहट धड़कने बढ़ा जाती है,
और जिससे बिछड़ने का गम मौत सी डराती है,
हाँ अगर है ये मोहब्बत, तो हाँ मैने की हैं मोहब्बत।।-
मैं पानी हूँ, मुझे पानी ही रहने दो,
रंग रूप की क्या बिसाद,
मुझे हर रंगत में ढलने दो।।
वक्त के दायरे तो,
बहौत सिमटे हुए है,
मुझे बेधड़क हर राह में बहने दो।।
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हे शारदे माँ,
अज्ञानता से हमें तार दीजिए माँ,
हर कण में तेरी ही वास हो माँ,
हर शब्द में तेरी आवाज हो माँ।।
लेखनी में मेरी सच्चाई की ही धार हो माँ,
सच तथ्य की खोज में मेरा संस्कार जुड़े माँ,
लिख सकूँ में अंधेरों की गहराईयों को भी माँ,
झुक सके न कलम मेरी,
किसी तलवार के धार से माँ।।
हे शारदे माँ, हे शारदे माँ,
अज्ञानता से हमें तार दीजिए माँ।।-
मैं जानता हूँ मेरे इरादें गलत नहीं है,
पर फिर भी जब जब गुजरती हो रास्तों से,
न जाने क्यूँ लब्ज खामोश रहते है और,
निगाहें तुम पर ही टिक जाते हैं।
और तुम बिना कुछ कहे नजरे फेरे,
मुस्कुराकर बस यू ही गुजर जाती हो,
शायद कुछ कहना है तुमको भी,
शायद कुछ कहना है मुझकों भी,
पर फिर लब्ज क्यूँ दगा दे जाते हैं।
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अरमान-ए-दर्द बहौत थे सीने में,
तेरी हँसी देख सब कुछ भुला बैठे।
ज़माने की दस्तूर से वाकिफ थे जनाब,
पर दस्तुरे कुदरत की अदा तुमने सीखा दिए।
भीड़ में अकेला दर-दर भटकता रहा,
तेरे चार कदमो के सफर ने अकेलापन मिटा दिए।।
🎂 Wish you happy birthday my life 🎂-
इंसानियत के घरौंदे तले, ना जाने कितने आँशु बहे,
कुछ को आँखों से अनदेखा किया,
और कुछ को पैरों तले कुचल दिया।
कुछ लोग चिल्लाते रहे हमारे कानों के नीचे,
पर हम, कानों में उॅगलियाॅ डालके मुस्कुराते रहे।
बढ़ते कदमों ने देखा ना जाने कितने घरौंदों को लूटते,
पर निगाहों को फेर कर अपने घर की और चल दिये।
कभी मुड़कर देखना चाहा भी दिल ने पीछे,
पर बेवजह फिजूल-ए-वक्त का इल्जाम दे कर उन्हें रोक दिये।
वक्त-ए-हालत की हवा में,
जब आग लगी खुद के घरौंदे पर,
बेसुध होकर हर चौखट और दरवाजे खटखटाने लगे।
तब याद आया कितनों ने आवाज दिये थे हमें,
पर अब उन घरौंदों से हॅसी की आवाज आने लगे।
रोकना चाहा इन आवाजों को फिर भी,
पर उन घरौंदों में खुद की तस्वीर दिखाई देने लगी।
बस बेबस अब दिल थाम के रोते रहे,
इंसान तो थे पर इंसानियत के घरौंदे,
ना जाने कितने मोड पे हमने ही तो तोड़े थे।।-
फिर क्या रोना इस जहाँ में
जब रोने की वजह रोज नई हो
रास्ते नई हो या ना हो
पर मुखातिर का खंजर रोज नई हो।
वजुद-ए-सवाल हर दफा उठते रहे
ख्वाब पे अक्सर लोग यूही हँसते रहे
मज़ाल कहाँ है किसी सख्श की
जो मरहम की दामन से जख्म भरते चले।।-
हाँ मेरा भी अस्तित्व है मेरा भी सम्मान है।।
मैं भी रोता हूँ बंद चार दीवारों में,
फर्क बस इतना है,
दुनिया के नजरों से छिपा कर रखता हूँ।
हाँ, कह ना पता मैं किसी से, क्यूँकि मैं पुरुष हूँ !!
लगा दिए जाते हैं कई इल्जाम बेवजह से,
कभी धर्म, समाज या पुरुषार्थ के नाम पे।
हाँ मेरे लिए कानून कि किताब भी बहौत है,
पर मेरे जज्बात के लिए जगह बहौत काम है।
चोट से छल्ली होता है मेरा जिस्म और मान भी,
पर ज़माने को मेरा दर्द देखने की फुर्शत कहाँ है।
हाँ, कह ना पता मैं किसी से, क्यूँकि मैं पुरुष हूँ !!
हाँ मैं भी तो बेचा जाता हूँ,
नाजाने कितने जिम्मेदारी और रिस्तों के आड़ पर।
लाद दिए जाते है,
उम्र के पड़ाव के पहले ही कितने बोझ मुझपर।
थक जाता हूँ मैं भी,
जिंदगी के पत्थरीले रास्तों पे चलते चलते।
पर कह ना पता मैं किसी से, क्यूँकि मैं पुरुष हूँ !!
एक आख़री मिसरा,
जानता हूँ दर्द की शुरूवात मुझसे बहौत हुई,
पर इस दर्द पे हक़ दोनों का बराबर रहा।
जब जब बिखरता रहा है जिस्म और सम्मान तेरा,
तब तब मेरे वजूद पर भी दाग लगता रहा।
टूटते रहे अरमान तेरे हर मोड़ पे,
मेरा भी ख्वाब कहाँ कभी पूरा होता रहा।।
फर्क बस इतना है, कह ना पता मैं किसी से, क्यूँकि मैं पुरुष हूँ !!-