भले ना दुआ, न ख़ुदा की बंदगी कीजिये,
मग़र किसी की न ख़राब, ज़िंदगी कीजिये।-
लेखन को लेखन ही समझें, कृपया हमसे न जोड़े🙏🙏
शून्य पर सवार एक शू... read more
जब मोहब्बत के किस्से सुनाने होते हैं,
तब ऐब - ए - यार, छुपाने होते हैं।
साथ नहीं तो क्या, होगी कोई मजबूरी,
अरे ग़ुलाम नहीं हमसफ़र बनाने होते हैं।
दिल में दर्द और आँखों में समंदर लिए,
ख़ुद ही ख़ुद के ख़्वाब दफ़नाने होते हैं।
उसका बस चले तो अभी हो जाए मेरा,
मग़र ज़माने के दस्तूर भी निभाने होते हैं।
इक आह से औरों को तबाह करने वाले,
किसी का घर नहीं, अपने दिल जलाने होते हैं।
हर रात क़यामत, हर दिन जैसे जलजला,
मोहब्बत में, बहुत से सितम उठाने होते हैं।-
और फिर थोड़ा सा मुस्कुराते तो अच्छा होता।
कहना चाहता हूँ जो भी हाल-ए-दिल आपसे,
बिन कहे ही सब समझ जाते तो अच्छा होता।-
न चाहते हुए भी छोड़कर जाना होता है,
ये दिल उजाड़ कर, घर बसाना होता है।-
सजाएँ मिलती हैं, बिना गुनाह किए भी,
प्यार हो या कानून, दोनों अंधे जो ठहरे।-
आप तो बेख़बर हैं, आपको ख़बर क्या ?
लोगों की बेबसी भी, करती नहीं असर क्या ?
फूले नहीं समाते जो, दौलत की ताकत पर,
इन चींटियों के अलावा आये उन्हें नज़र क्या ?
न बरगद न पीपल न नीम की छाँव बची है,
अब गाँव में ही बसने, लगे हैं शहर क्या ?
सत्तर काम मिले हैं, शिक्षण के अलावा,
शिक्षक व बच्चे करें, पेंसिल और रबर क्या ?
दे सम्मान, दे बुद्धि, दे तर्क करने की शक्ति,
दुनिया को समझाओ, शिक्षा है धरोहर क्या ?
मूर्खों के राज में है, पाबंदी सच बोलने पर,
मैं भी फैलाऊँ नफरत,और घोलूँ ज़हर क्या ?
हो काम में ईमानदारी,और पेशे से वफादारी,
तो मरने को काशी, या फिर मगहर क्या ?
जो समझते दर्द, तो तड़प उठते तुम भी,
और कहते कि हम भी जाएँ अब गुजर क्या ?-
कितना आसान होता है किसी को गलत ठहराना,
और उसके बाद फिर, खुल कर मुस्कुराना।
मग़र, क्या यही मोहब्बत का दस्तूर है आख़िर,
कि पहले इश्क़ जताना, और फ़िर भूल जाना।-
मैं सच लिखूँ और, आपको यक़ीन आ जाए,
काश जज़्बातों के लिए, एक मशीन आ जाए।
जुदा होंगे तो मर जायेंगें दोनों, अलग होकर,
ग़र कह दो लबों से, मुझे तस्कीन आ जाए।
आज़ादी ऐसी जिसमें जन्म-जन्म का बंधन हो,
जो हर ज़िंदग़ी में, मोहब्बत हसीन आ जाए।
कैसी फ़ितरत है, जो मर के भी नहीं मिटती,
फ़िर वफ़ा-ए-अल्फ़ाज़ में कैसे तौहीन आ जाए।
कितनी प्यारी बातें हैं, कोई पड़ता फ़र्क़ नहीं,
चाहे आसमां पैरों तले, या ऊपर ज़मीन आ जाए।
छोड़ो यार ख़याली बातें, सच्चाई को अपनाओ,
रेगिस्तान की क़िस्मत में, कैसे मीन आ जाए।
बस ये ही दुआ करो, जब महफ़िल में पहुँचे हम,
हर जाम के साथ में, थोड़ी नमकीन आ जाए।-
वो सच्चाई ही किस काम की,
जो तोड़ दे उम्मीदें सारी दिल की,
वैसे पता किसको नहीं है यहाँ कि,
वो झूठ पे झूठ बोल रहा है।
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