Pradeep Agarwal   (अंजान..✍)
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Joined 6 November 2019


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4 MAY AT 16:38

लबों पर बे-रुख़ी, दिल में मलाल रहने दो
अब वो हसीं मुलाक़ातों के ख़्याल रहने दो

बाक़ी बचे जो दिन वो भी गुज़र ही जाएँगे
ये वक़्त के उलझे हुए सब सवाल रहने दो

ख़फ़ा है देखो मुझसे ही ये मेरे हर इक़ ग़म
सुनो अब तुम बेमतलब के बवाल रहने दो

उम्र ही कितनी बची इस क़ैद-ए-हयात की
दर्द-ओ-अलम ना पूछो इस साल रहने दो

आँखों के समुंदर में न पूछ है कितना पानी
कुछ दिन तो ज़ख़्मों को ख़ुशहाल रहने दो

क्यूँ इस तरह गुमसुम खड़ी हो तुम ज़िंदगी
आईने के मुक़ाबिल जल्वे-जमाल रहने दो

इस ज़माने में अंजान बना रहना अच्छा है
अजी मतलबी ज़माने की मिसाल रहने दो

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25 APR AT 20:49

उसकी यादों में अब तो ये ज़ीस्त यूँ ही गुज़र जाएगी
पता नहीं मेरे इस बेजान पैकर को मौत कब आयेगी

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31 MAR AT 11:11

मत गँवा तू वक़्त अपना मुझको आज़माने में
मैंने कभी वक़्त ज़ाया न किया शौक़ मनाने में

मंडराता रहा साया ग़मों का यूँ मुझपर सदा ही
पर उम्र गुज़ार दी ग़मों को प्यार से सहलाने में

हर पल मशवरे देते थे लोग मुझे यहाँ मुफ़्त में
उनकी फ़ितरत बता गया आईना अनजाने में

हम-दम की महफ़िल में चलता है यूँ ज़िक्र मेरा
उन्हें पता है कि माहिर हूँ मैं दर्द में मुस्कुराने में

निभाई जिसने दोस्ती वो दोस्त बड़े याद आए
वक़्त गुज़रा यारों के संग हँसने और हँसाने में

ऐसा पैसा किस काम का इस दुनिया में प्रदीप
जो दोस्तों को भूल कर साथ निभाए मैख़ाने में

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9 JAN AT 10:05

ज़माने में लोग इतने बे-ताब और बे-क़रार क्यूँ है
अजी यहाँ लोग ज़रूरत से ज्यादा होशियार क्यूँ है

यहाँ मुँह पे तो सब ही जताते है अपनापन लेकिन
अजी 'साहिब' फिर पीठ पीछे दुश्मन हज़ार क्यूँ है

करते है बड़े ही सलीक़े से मोहब्बत की बातें यारों
फ़िर यहाँ पे लोग ज़हर में डूबे हुए क़िरदार क्यूँ है

खुली क़िताब की तरह ही हैं अपनी तो ज़िंदगानी
मगर उसकी कुछ बातें आज भी राज़-दार क्यूँ है

जब है दिलों में इतनी मोहब्बत इक़ दूजे के लिए
तो फ़िर प्रदीप करते लोग रिश्तों में व्यापार क्यूँ है

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3 JAN AT 9:13

मैं ख़ुश हूँ ये देख कर आज कल ज़िन्दगी हैरान है
ग़म में भी मुस्कुराता देख मुझे हर कोई परेशान है

ख़ुशी की तलाश में तो हर कोई नज़र आता यहाँ
ढूँढता नहीं कोई मता-ए-ग़म ख़ुदग़र्ज़ हर इंसान है

लगती सदियों से लम्बी ये फ़ुर्क़त की घड़ियाँ यारों
और ख़ुशियाँ जैसे कुछ पल भर की ही मेहमान है

अक्सर देखा है मैंने ग़म ही मिलते हैं मोहब्बत में
कभी ख़ुशी मिले तो लगता जैसे ख़ुदा मेहरबान है

सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू होते है
जो इसे समझ ना सके "प्रदीप" वो बड़ा नादान है

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1 JAN AT 12:50

इश्क़ किया क्या ये ख़ता है हमारी

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31 DEC 2024 AT 21:28

सीधी राहों को भी अक्सर तूने मोड़ा है
ज़िन्दगी तू जो ना कर सके वो थोड़ा है

तूने इजाज़त नहीं दी बोलने की मुझे
तो मैंने लफ़्ज़ों को हलक से निचोड़ा है

कमाल तो ये है कि अब दर्द उठता नहीं
बड़ी नज़ाकत से तूने दिल को तोड़ा है

बचा नहीं पास मेरे कुछ भी ओढ़ने को
मैंने चादर को ही कफ़न बनके ओढ़ा है

अब ज़रा तू ही बता दे इन राहगीरों को
ऐ ज़िन्दगी तूने मुझे कहाँ लाके छोड़ा है

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19 DEC 2024 AT 17:53

देखा मैंने हर-सू दर्द-ओ-ग़म इस बे-दर्द ज़माने में
कोई कसर नहीं छोड़ते अपने दिल को दुखाने में

क्या ख़ूब जताते हैं लोग इश्क़ में वफ़ा-दारी मगर
बड़ी कंजूसी करते है 'यारों' लोग प्यार जताने में

अपने-पन का जज़्बा खोए और मरासिम भी टूटे
उम्र गुज़र जाती लोगों की लोगों को आज़माने में

किसकी फ़ितरत कैसी है ये भला कैसे जाने कई
मगर ख़ूब मज़ा आता है इन्हें गहरी चोट लगाने में

वादा पूरा करना अपना इस सावन में आने का
वरना क्या रक्खा है दिलबर सावन आने जाने में

बातें दिलों की कहना, सुनना यही सच्चा प्यार है
मगर सदियाँ लग जाती हैं लोगों को समझाने में

जाना समझा बूझा परखा तब जाकर प्यार किया
फिर अब कहता है ज़ालिम भूल हुई अनजाने में

जिसने आँखों की मय पी ली इक़ दफ़ा जी भरके
उसको क्या दिलचस्पी रही इन मय के पैमाने में

लोगों के अफ़साने सुनना अच्छा लगता है "प्रदीप"
लेकिन मज़ा तो तब है जब तू भी हो अफ़साने में

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11 NOV 2024 AT 9:57

ख़ता हुई जो ख़ुद-ग़रज़ों के शहर में क़ल्ब-ए-क़रार ढूँढ़ने निकले
अजी बे-दिलों के शहर में हम राह-ए-सफ़र में प्यार ढूँढ़ने निकले

ना रही दोस्तों इस ज़माने में किसी को किसी से किसी की तलब
इस बे-दर्द जहाँ में हम दिल-ए-ग़मगीं यार तलबगार ढूँढ़ने निकले

था शहर संग-दिलों का और महफ़िलें भी थी यहाँ वीराँ-वीराँ सी
राह-ए-इश्क़ में हम भी हम-सफ़र दिल-ए-बे-क़रार ढूँढ़ने निकले

बिकती है बे-वफ़ाई जहाँ में अब तो सर-ए-आम क़दम-क़दम पर
तेरे शहर में सनम हम वफ़ा-ए-इश्क़ सर-ए-बाज़ार ढूँढ़ने निकले

मोहब्बत की राहों में चलना इतना आसाना कहाँ होता हैं "प्रदीप"
इस फ़रेबी जहाँ में कहाँ तुम भी जमाल-ओ-एतिबार ढूँढ़ने निकले

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29 OCT 2024 AT 17:19

फिर से तन्हाइयाँ सजाई है मैंने दिल-नवाज़ों के लिए
काजल लगाया है इन आँखों में दर्द-ए-नाज़ों के लिए

रौनक-ए-चराग़ किसी को रास नहीं आता ज़माने में
हवाएँ साथ लिए फिरते है यहाँ लोग चराग़ों के लिए

नफ़रतों का ज़हर फैला हुआ है हर तरफ़ फ़ज़ाओं में
कहाँ से लाए 'आसमान' परिंदों की परवाजों के लिए

अपनों को फ़ुर्सत नहीं यहाँ ज़ख्मों पर ज़ख्म देने से
ख़रीद लाओ ताले ज़ेहनों दिल के दरवाज़ों के लिए

कुछ तो कह भी दो "प्रदीप" कोई ग़ज़ल, कोई नज़्म
ख़ामोशियों से गूंजती दर्द भरी इन आवाज़ों के लिए

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