"प्रगतिशील भारत"
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"मानवता का मौन प्रश्न"
हादसों की जंजीर में,
जकड़ी हुई हैं जिंदगियांँ,
डरी, सहमी, सिसकती,
दम तोड़ती जिंदगियांँ,
घने अंधेरे सा यह समा़,
समय भी रुक गया है जहाँ,
कोई लाचार, कोई बीमार,
मानवता होती शर्मसा़र,
बदहाली का आलम़
दिख रहा है बार-बार,
क्या कोई अवतार होगा,
कैसे उद्धार होगा? ।
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"समय को कोई भेद न पाए,
जाने क्या-क्या खेल दिखाए,
जीवन अप्रत्याशित है बंँधु,
वो चाहे जिस ओर ले जाए" ।-
"मैं कौन हूंँ"
अक्सर जब हम किसी से पूछते हैं, कि तुम कौन हो? तो वह व्यक्ति बोलता है कि मैं यह (नाम) हूंँ, पुरुष या महिला (लिंग) हूंँ, इनका लड़का या लड़की (माता व पिता के नाम से) हूंँ। देखा जाए तो 'मैं कौन हूंँ' का उत्तर देना, बहुत कठिन है, परंतु सरल भी है। जब हम 'माया' के बंधन में बंधे होते हैं, तो स्वयं को नहीं पहचान पाते। हम परमेश्वर के साथ अपने संबंध को भूल जाते हैं, इसलिए स्वयं को जानना या मैं कौन हूंँ का उत्तर देना कठिन होता है। भौतिक जगत में आप या हम, नाम से, लिंग से, संबंधों से या पद विशेष से पहचाने जाते हैं, लेकिन हम स्वयं को नहीं खोज पाते, क्योंकि पहचान तो शरीर की होती है ,रंग ,रूप, नाम तो शरीर के होते हैं, जो की नाशवान है। शरीर में आत्मा का निवास होता है, जो की शुद्ध चेतना है, स्वच्छ ऊर्जा है। जब यह शरीर का त्याग करती है तो फिर कुछ नहीं रह जाता। जो चीज बचती है वह यही शुद्ध चेतना है, और यह परमात्मा का अंश है। जब हम यह जान लेते हैं, तो 'मैं कौन हूंँ' का उत्तर पाने की दिशा में अग्रसर होते हैं, प्रगति करते हैं।-
"कविता- ईश्वर की वाणी है
विचार- ईश्वर का सृजन है,
कला -ईश्वर का सौंदर्य है,
प्रेम -स्वयं ईश्वर हैं"
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"कहानी"
"कुछ
कहानियांँ किताबों ,
में नहीं छपतीं,
वो बस कहानी बनकर,
रह जाती हैं और
उनमें बसे किरदार,
कहानी हो
जाते
हैं"।-
"घरौंदा"
लौट आते हैं कुछ परिंदे,
अपने घरौंदों में अक्सर,
पंख होकर भी,
पर परिंदे
कुछ ऐसे भी हैं,
जो ऊंँची उड़ान भरते,
तो हैं, लेकिन
भूल जाते
हैं, वह रस्ता जो,
घर की तरफ़ जाता है।-
"क्वीन ऑफ़ डेक्कन"
झमझमाती बारिश में,
कड़क चाय सा स्वाद है,
हल्की-हल्की ठंँड में,
हसीन वादियों सा एहसास है
तपिश वाली गर्मी में,
रसीले आमों का अंदाज है,
कभी न सोने वाले इस शहर पर,
गणपति बप्पा का आशीर्वाद है,
तभी तो "क्वीन ऑफ़ डेक्कन" के नाम से,
मशहूर यह शहर कुछ खास है,
संस्कृति से जुड़े रहते हैं लोग यहांँ,
ऐतिहासिक इमारतें करती है इतिहास बयांँ,
लोक कलाओं का उत्सव बेहिसाब है,
स्वादिष्ट पकवान भी यहांँ के बहुत लाजवाब हैं,
आपदा में अवसर की तलाश है,
3 वर्षों का खुशनुमा इतिहास है,
तभी तो सहयाद्री की खूबसूरत पहाड़ियों में बसा,
यह शहर कुछ खास है।
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"चलते-चलते ही,
साथ छूट जाते हैं अक्सर,
की, निगाहों में बस गए थे जो,
अब ख़्यालों में भी नहीं आते" ।-
"मेरी माँ"
मैं कविताओं में, कहानियों में,
देखता हूंँ, एक द्वार,
असीम संभावनाओं का द्वार,
जिस पर प्रकृति का श्रृंगार है,
जहांँ धर्म और इंसानियत विद्यमान है,
प्रेम और करुणा की प्रचुरता है,
जीवन जीने की कला है,
क्योंकि उस द्वार पर,
खड़ी हैं, मेरी मांँ।-