“आतंकवादी सफाया”
मिलेगी उसी दिन कलेजे को ठंडक,
जिस दिन आतंकवाद का होगा सफाया।
कितने मासूमों ने खाई है गोली,
कितनों के घर का बुझा है दीया,
फिर से मनेगी अब उसी दिन दीवाली,
जिस दिन आतंकवाद का होगा सफाया।
हम तो हैं ऐसे वतन के वाशिंदे,
जो देते जबाब ईंटों का पत्थर से हरदम,
खेलेंगे अब तो उसी दिन हम होली,
जिस दिन आतंकवाद का होगा सफाया।
न डरते हैं तूफ़ां से हैं क़लम के सिपाही,
चाहे तो हमको जब आजमा लो,
ये रुकेगी झुकेगी उसी दिन लेखनी,
जिस दिन आतंकवाद का होगा सफाया।
पूनम ‘प्रियश्री’ ✍️
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“महायुद्ध”
कितना वीभत्स मंजर था,
उस महायुद्ध का।
पैर कटे थे सिर कुचला था,
अस्थि मांस पंजर था।
कुछ के चीथड़े उड़े हुए थे,
कुछ के हाथों में खंजर था।
थे कपड़े खून से लतपथ,
वह मरुभूमि बंजर था।
ली सम्राट ने वहीं प्रतिज्ञा,
बौद्ध भिक्षु बसा अंतर था।
युद्ध करेंगे अब न कभी,
सब राजपाट झंझर था।
कितना वीभत्स मंजर था,
उस महायुद्ध का।।
पूनम ‘प्रियश्री’✍️-
”संगीत और कला”
धुंध सर्दियों की रात
मधुरिम स्वर का प्रपात
अहा ! देखो अली री
कितना स्वर्णिम है वात
हुआ मिलन का प्रवाह
सुन संगीत हुई स्याह
है कला का आमंत्रण
सात सुर तक रहे राह
ओढ़े तिमिर का पट श्याम
कर रही संगीत साज
हुआ अनुपम संयोग
संगीत से कला का आज
मिट गए सभी भ्रांत
दोनों मिले हैं एकांत
अहा ! देखो अली री
कितना सुखमय विश्रांत
पूनम ’प्रियश्री’
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”उठो जागो”
आज खून फिर खौल उठा है राजपूती गाथाओं में ।
कब तक सोते रहोगे शेरों तुम बंद पड़ी गुफाओं में।।
जैसा जज़्बा था तुझमें वह कहीं नहीं अब दिखता
चमक पड़ी तेरी फीकी खरा सोना हो नहीं बिकता
पड़ रहे हो क्यों दुर्बल तुम मांस-मदिरा के भावों में
कब तक सोते रहोगे शेरों तुम बंद पड़ी गुफाओं में।।
अपना शौर्य याद करो तुम राणा प्रताप के भालों में
ईमान नहीं बेचा जिसने घास की रोटी थी निवालों में
आज वही वीरता तुम्हारी क्यों सुस्त पड़ी है छांवो में
कब तक सोते रहोगे शेरों तुम बंद पड़ी गुफाओं में।।
उठो जागो अब वक्त आ गया अपनी म्यान गर्म करो
रहो एकजुट सदा सर्वदा स्वयं के बंटने में शर्म करो
राजपूती लहू बह रहा तुम्हारी धमनी और शिराओं में
कब तक सोते रहोगे शेरों तुम बंद पड़ी गुफाओं में।।
पूनम सिंह ’प्रियश्री’
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”मैं ऐसी ही हूँ ”
हां मैं ऐसी ही हूँ...
अलमस्त सी अंगड़ाई सी..!
ढूंढ लेती हूँ सुकून मन का,
तमाम मकड़जालों के बीच
ममता की परछाई सी ।
हां मैं ऐसी ही हूँ...
उनींदी सी अलसाई सी..!
बना लेती हूँ अपना ठौर,
अस्त-व्यस्त ठिकानों के बीच,
लेखन की रोशनाई सी।
हां मैं ऐसी ही हूँ...
लता सी अमराई सी..!
कर लेती हूँ आलिंगन,
टूटते हुए सभी सपनों का
आँखों की कजराई सी।
हां मैं ऐसी ही हूँ...
मदमस्त सी पुरवाई सी..!
जोड़ लेती हूँ आस-पास के,
हर एक एहसास को
अचकन की तुरपाई सी। पूनम प्रियश्री ✍️
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”ख़ुशबू किताबों की”
मन जाए ऊब जब दुनिया के व्यवहारों से,
चंदन सी महकाए ख़ुशबू किताबों की ।
ठिठकने लगे पांव जीवन की आपाधापी में,
मधुवन बन लुभाए ख़ुशबू किताबों की ।
सूना सूना लगे जब जीवन का हर कोना,
जननी बन दुलारे ख़ुशबू किताबों की।
दुनिया लगे वीरानी छाये गहन अंधेरा जब,
साथी सा साथ निभाये ख़ुशबू किताबों की।
क़दर नहीं है करते क्यों आज तुम किताबों की,
मुश्किलों में काम आए ख़ुशबू किताबों की।
पूनम प्रियश्री ✍️
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फूटेंगी नव कोपलें,महकेगी फिर से क्यारी,
दिखेंगी नई राहें, मंज़िल भी मिलेगी प्यारी,
डूबकर शोक में न दिल को अपने दुखाओ,
छटेंगे दुख के बादल आएगी सुख की बारी ।
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”अपना मेल”
कहो ! कहां है अपना मेल...?
मैं अथाह सागर सी भावनाओं को समेटे
और तुम विरक्त से भावशून्य ।
कहो! कहां है अपना मेल...?
मैं बुनती ख़्वाबों के नरम एहसास
और तुम दूर तलक इससे इतर हो रहते ।
कहो ! कहां है अपना मेल...?
मैं प्रेयसी सी तुम्हारा राह तकती
और तुम घन वन से टस से मस न होते ।
कहो ! कहां है अपना मेल...?
करती रहूंगी फिर भी सदैव इंतजार
कि लौटोगे एक दिन तुम चिर निद्रा से ।
मैं विलीन हो जाऊंगी तुझ में ही
और रह जाएंगे तुझमें मेरे अवशेष
कहो ! तभी हो पाएगा अपना मेल ।
पूनम प्रियश्री ✍️
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