Poonam Pal   (पूनम...."साहिब़")
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Simple,music lover and docile.Like reading books...more into spiritual world!.
Joined 24 June 2017


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14 AUG AT 15:32

सवाल बहुत पूछती थी मैं
प्रेम में पड़कर अक्सर
मनुष्य खुद से बहुत सवाल करता है
सही गलत,के भेद को पाटना
अच्छा लगता है
जैसा कि प्रेम में प्रेमी होने का अपना पर्याय है
प्रेयसी होने का अपना ही सुख है
प्रेम विरह की अपनी ही सुन्दरता है
ये केवल प्रेम ही आपको सिखा पाता है
सीखना हर जगह है आपको
प्रेम सुन्दर अभिव्यक्ति है
आपको और बेहतर करने की
शून्य,के आकाश पर स्थापित करने की
जहां प्रेयसी और प्रेमी विलुप्त होकर
केवल"प्रेम" हो जाते हैं, जहां आनंद है
शान्ति है और गहन विश्राम है।।

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27 JUL AT 19:37

समाजशास्त्र कहता है कि किसी रिश्ते का जन्म उसकी जरूरतों के हिसाब से होता है, एक बार जरूरतें खत्म तो रिश्ता भी खत्म। शायद इसलिए ही आप इतना विघटन देखते हैं समाज में। एक समय पर जो इतना अहम लगता है, जरूरी नहीं कि वो हमेशा ही रहें। रिश्तों का बनता बिगड़ता स्वरूप हमें चाहे आश्चर्य करें पर सच यही है। जो इनके व्यवहार पक्ष को समझ लेता है, सुलझ जाता है।

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27 JUL AT 19:01

भाग्य, नियति,किस्मत,नसीब़
ये सब एक साथ केवल
कलम़ की नोंक पर ही आते हैं
किसी के हिस्से नहीं।।

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25 JUL AT 14:41

मुहब्ब़त और नफ़रत दोनों ही गहरे हैं, एक से लेकिन विरोधी भाव हैं। दोनों ही तबाही लाते हैं, जानें क्या क्या कर गुजरते हैं। बदलाव लाने की क्षमता दोनों में है। नफ़रत में आपने लोगों को बदलते देखा होगा। मुहब्ब़त भी ऐसा ही कुछ करती है। अन्तर बस ये है कि एकसाथ कभी नहीं आते, एक के तिरोहित हो जाने पर ही दूसरा जन्म लेता है। कहावत आपने सुनी होगी; मुहब्ब़त और जंग मे सब जायज़ है, ये इसी भाव पर जोर देता है। बहुत कुछ बदलता है आपके अन्दर । भावनात्मक रूप से पूरा का पूरा संसार बदल जाता है आपके लिए। मनोवैज्ञानिक भी ऐसा मानते हैं कि भावनाएं हमारे शरीर को पूरा बदलने मे सक्षम है, कभी हमें ये बेहतर तो कभी बदतर बना देती है। कहा जाता है हमेशा अति से बचना चाहिए, एक संतुलन जरूरी है और हमारी पूरी जिन्दगी इसी संतुलन को बनाए रखने में खप जाती है। गौर करने वाली बात ये है कि ये समाज पर भी असर डालती है, हम एकदूसरे से ही सीखते हैं न । संतुलन साधने वाला इसलिए साधक कहलाता है और साधुता इसी में है कि हम संयम से जीवन बिताए न कि किसी अति का सहारा लें। जीवन सुन्दर है, सत्य है और दुर्लभ है, विशेषकर मनुष्य का। आइये इसे सुन्दर और सत्य की ओर ले जाए।

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23 JUL AT 23:12

शोर मन का झकझोर रहा
अतिशय पीड़ा से बोल रहा।।
कैसी पैठ तूने पाई
अंतस के उजले तन को तोल रहा।।
माया गहरी, गहरा मन भी
फिर क्यों भंवर में डोल रहा।।

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22 JUL AT 16:50

जरा देर से समझ आता है मुझको
इतना आसां भी नहीं समझ पाना सबको
चेहरे पे चेहरे चढें हैं देख लो तुम भी
मुद्दत के बाद समझा, तब याद आया तू मुझको।।

नादांनियां अच्छी है एक हद तक
हद मे रहकर ही सब करना है मुझको
दूर कहीं धड़कन बढ़े तो बढ़े
हर दिल से क्या वास्तां है तुमको।।

तुम तो छोड़ गये न, अब बेफिक्र रहो
यूं देर सबेर घर के चक्कर क्यों लगाना है तुमको
हो फुर्सत में इतने तो, घर देख लो अपना
आशियां मेरा मुझ तक ही रखो।।

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21 JUL AT 14:45

कितना भी व्यवस्थित कर लेंगे जीवन को, कुछ तो अव्यवस्था रह ही जानी है, मसलन बहुत सी घटनाएं आपके पक्ष में नहीं होंगी,बहुत सी रातें डरावनी होंगी। आप सोना चाहेंगे पर ठीक से सो न पाएंगे, यही जीवन का सत्य है। उपलब्धियां आपको कभी तो काफी लगेंगी पर तभी किसी दिन सब बदला सा लगेगा। शायद यही आगे बढ़ना है। अगर सब बहुत अच्छा है तो कितने दिन? और अगर सब बहुत बुरा है तो कितने दिन?सोचिए!

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20 JUL AT 16:39

तुम अपनी उधेड़बुन में हो,हम अपनी डोर लगा रहें
चलते चलते देखो,हम बहुत दूरी जता रहें
ये शामें परिन्दों को एक दर्द ए किस्सा सुना रहें
मैं परिन्दा तू परिन्दा हम घर किसका सजा रहें।।

वो जो भरता नहीं ,खाली होकर भी
ऐसा कुंआ दिल को बता रहें
मैं बहुत कुछ लिए हूं पास सिवाए इक तेरे
यहां के लोग मुझे तेरा साया बता रहें।।

किस रोज हम अलग हुए,तारीख तक याद नहीं
जाते जाते रस्ते भी तेरा पता बता रहें
क्या करूं मिलकर तुझसे, मेरा तो तू है नहीं
खैर खब़र तक ठीक, ये लोग मुझे तेरा बता रहें।।

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19 JUL AT 0:02

ये जो दौर परेशानी का है, पर सबका है
तर्बियत में बेचैनी का है, पर सबका है
गुल खिल रहे बाग में, पर उस तरह नहीं
लाग लपेट दुनिया का है,पर सबका है।।

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18 JUL AT 16:58

सोचने वाली बात है, नियतिवाद और क्रियमान कर्म के बीच का अन्तर्द्वन्द्व:-
अगर सब कुछ पहले से निश्चित है , निर्धारित है तो फिर हमारे कर्म करने और न करने का क्या मतलब?
और यदि नहीं है ऐसा , तो गतिमान कर्म जिसे क्रियमान भी कहते हैं,वही सब कुछ कर दें, ऐसा भी नहीं है क्योंकि ये संसार है अर्थात् यहां सब मिला जुला है, यानि यहां सब है। शायद इसलिए हम इस द्वन्द्व से बाहर नहीं आ पाते। एक उदाहरण लीजिए, अगर कंस की मृत्यु पहले से तय थी , तो भी तो उसने अपने कर्म ठीक नहीं किए, एक के बाद एक अधर्म करता रहा जीवनभर और अंततः उसे भगवान कृष्ण मृत्युदण्ड देते हैं। स्पष्ट है , अगर आपको भविष्य पता भी हो तब भी आप वही कर्म करेंगे जो आपका होश या यूं कहे मन कराएगा। मन पर काबू पाना ही सिद्धी है। हरि ऊँ तत्सत्!

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