आसमां के सीने में धड़के बादल,
घनघोर अंधेरे काले बादल।
आज फिर बरसे तुम बादल,
तुम नहीं सावन के बादल,
फिर क्यूं होते मतवारे बादल।
उधम उत्पात मचाते बादल,
कितने बरसे, कितने रोये...
कैसे करे हिसाब ये बादल।
आधी रात में बरस रहें हैं,
धरती का माथा चूम रहें हैं,
अपनी मधुर फुहार से बादल।
सोया अवधू जाग उठेगा,
कोई बुल्लेया नाच उठेगा,
अनहद नाद बजादो बादल।-
रात्रि का मध्य पहर,
कमरे के इक कोने में जलता मिट्टी का दिया,
घड़ी की टिक-टिक,
बगल के कमरे से खांसते पिताजी,
गली के नुक्कड़ पर भौंकते श्वान,
दूर कहीं से गुजरती मालगाड़ी की सीटी,
आसमां में उद्यम मचाता...
बादलों को चीरकर गुजरा विमान,
किसी भोले बालक की मुस्कान पहने तन्हा चांद,
टिमटिम तारे,
कतारबद्ध उड़ते श्वेत पक्षी..
पर...
शहर भर ने गटक रक्खी है,
सुकूं की चाहत में नींद की शराब।
सभी सो गये हैं!
कितना सब कुछ होता है तब भी,
जब सब सो जाते हैं।
नहीं!...सुनो!...
कितना सब कुछ होता है तब भी,
जब सब मर जाते हैं।
हाँ! सब मर ही जाते हैं।
कि कुछ पहर मरना ही पड़ता है,
कुछ पहर जिंदा रहने के लिए।
रोज़ मरना ही पड़ता है,
रोज़ जीने के लिए।-
बड़ी तलब है तुम्हें जानने की,
कि ज़ुबां में उर्दू क्यूं महकती है?
तो सुनो!
पिताजी कोतवाल थे...
कोतवाली संभालते थे...-
माफ़ कीजिएगा!
पर मेरी दरख़ास्त है कि जब मैं बोलूं...
तो आप ख़ाली अपने कानों से ना सुनें...
आप अपनी आंखों को भी सुनने के लिए इस्तेमाल करें।
मेरे देखे में...
जब किसी को कानों के साथ-साथ आंखों से भी सुना जाएं,
तो उसे ठीक तरह से समझने की गुंजाइश थोड़ी और बढ़ जाती है।-
गुलों में रंग तेरे ही,
कांटों में चुभन है तेरी ही,
फूलों को चाहूं और कांटे नहीं...
ऐसी मैं गुस्ताख़ कहां!
~ आनंदमूर्ती गुरुमाँ~-
दूर तो तुम हो, पर दूर नहीं...
और मिलने को मजबूर नहीं..
हम तुमसे स्नेह तो करते हैं...
पर ये दोस्ती है, कुछ और नहीं!!-
वो मिलने पर मुझे फूल नहीं देता...
ना ही कोई गुलदस्ता...
वो मुझे पूरा बागीचा भेंट करता है।
वो ले जा कर खड़ा कर देता है मुझे बगिया के बीचों-बीच...
और कहे देता है...
निहारो इन फूलों को,
सांस लो इनकी महक में,
गुनगुनाओ इनके साथ,
वो मेरे जीवित हाथों में, मृत पुष्प थमाने से डरता है।
वो कहता है कि मैं तुमसे मिलने की खुशी में,
इतना पागल नहीं हो सकता कि किसी फूल को शाख से जुदा करूं।
मैं ये मानती हूंँ कि पृथ्वी को प्रेम में पागल आशिक नहीं चाहिए,
ये धरती प्रेम में समझदार हुए प्रेमियों की तलबगार है।-
गुलाब होने की चाहत मेरी कभी थी ही नहीं,
और सदाबहार होने की तमन्ना आज भी है।।
अनचाहे हुकुम की तामिल करते रहे ताउम्र,
पर धड़कनों में बगावती तेवर आज भी है।।
यूं तो लहर दर लहर कश्ती चलती ही रही,
पर साहिल पर पहुँचने का ख़्वाब आज भी है।।
~पारो राव-
कशमकश ये दिन-रात है...
तुझे चाहें कि भुला दें,
वफ़ा करें कि तुझको दगा दें,
या फ़िर मोहब्बत में बेपरवाह होकर...
अपनी हस्ती को मिटा दें,
हमें सब हैं मंजूर गर ये उन्हीं से मिले
वो चाहे दवा दें, दुआ दें, सज़ा दें, मज़ा दें...-