हां लिखती हूं तुम्हें
रोज लिखती हूं कोई खत
जहां हर एक शब्द में
मैं नहीं तुम नहीं,सिर्फ हम हैं
हां लिख देती हूं तुम्हारी चुभती बेरुखी
तुम्हारी शिकायत, तुम्हारा अंदाज और बहुत सारी याद
हां लिखती हूं तुम्हें
रोज लिखती हूं कोई खत
सोचती हूं भेज दूंगी सारे खत
मै बता दूंगी की तुम अच्छे लगते हो
तुम्हें देखने से ही इतमीनान है
बस कहना नही आया
जिन्हें पढ़ तुम शायद मुस्कुराओगे
या कहूं चकित हो जाओगे
हां लिखती हूं तुम्हें
रोज लिखती हूं कोई खत
और फिर आखिर सारे खत
मैंने खुद रख लिये
उन्हें पढ़ा और नम कर ली आंखे
हर शब्द में तुम्हें लिखा,तुम्हें पुकारा सिर्फ तुम्हें
फिर एक दिन
खत इकट्ठा कर जला दिए सारे
खत तक ही रह गया प्रेम मेरा
तुमसे ना कह पाई कभी,ना कह पाऊंगी शायद
हां लिखती हूं तुम्हें
रोज लिखती हूं कोई खत
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