“ सावन “
बादल का सीना चीर के जब
बूँदे मल्हार सुनाती हैं ।
मन नाच मयूरी के जैसे
सब भूल कहीं खो जाती है।
जब हाँथ पसारे रोकूँ मैं
बादल से गिरती बूँदो को,
क्या कहूँ ? कि मन के कोने में
घुँघरू सी गूँज सुनाती है।
मन हुआ कि बिखरूँ बूँदो सी
मैं धरा पे यूँ ही बह निकलूँ,
मन हुआ जहाँ पे ठहरूँ मैं
मन हुआ वहीं से बह निकलूँ,
ना संग कोई हो साथ मेरे
बस मुझमें मैं ,और बूँदे हों,
मन भिगो के झूलूँ सावन में
जो गीत हो बस वो मेरे हो
जो गीत हों बस वो मेरे हों….
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