Pooja Sargar   (अलवार गूढ)
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Joined 27 September 2018


Joined 27 September 2018
5 OCT 2020 AT 0:10

मैं ठहरी हूँ बनारस की उस नुक्कड़ पें
तुम उम्मीदों की सौगात ले आना
रूहानी शाम तले
दिल की आरज़ू कैनवास पें उतार लाना

हमसुखन मेरे ,
बस थामा हुआ हाथ कभी ना छोड़ना

बिते जमाने की महफ़िल अब फिर ना सजाना
थोड़ी कोशिश तुम करना थोड़ी हम कर लेते
चलो अजनबी रास्तों पर सफर जारी करते...!

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27 AUG 2020 AT 17:33

Less dependability
more freedom....!

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13 MAY 2020 AT 21:06

वैसे किताबें तो बहुत पढ़ ली
इन्सानों को भी थोड़ा-बहुत समझ लिया
सोचा,आज खुद को थोड़ा पढ़ लेते है...
लेकिन शुरूआत कहा से करू समझ नहीं आ रहा
क्योंकि खुद का हो तो थोड़ा अलग ही असर रहता

वैसे हर एक पन्ने का अलग एक तराना
हर एक पन्ने की अलग अपनी कहानी

माना इतनी भी उम्र नही हुई तजुर्बे के लिए
पर भला उम्र देख कर थोड़ी ना आता तजुर्बा...!
उपरी कव्हर तो लोगों के हिसाब से बदलता रहेगा
पर अंदर की कहानी सबकी वैसे ही रहेगी...

बेजुबान सी इस जिंदगी में
वही याराना अभी भी महफ़ूज रहेगा
खुशियों के आलम संग
गमों की छाँव भी रहेगी
आजादी की धूप के होते
कही ना कही बंदिशों की कगार रहेगी
अधुरे इश्क़ के तरह
कही ना कही आधी-अधूरी बातें होंगी

खैर छोडिए,खुद को अगर पढ़ पाते
तो आज कुछ अलग ही कहानी होती
जिम्मेदारी संग तन्हाइयां मुफ्त नही मिलती
नाही खुद की परछाई कही गुम हो जाती
नाही सुकून की राहत में जिंदगी उलझ जाती
नाही उम्मीद की किरण छिपे वजूद को जगाती
खैर छोडिए ......!!

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8 MAY 2020 AT 0:10

तू ऐसे ही बिना दस्तक आया कर
तेरे खयालों से मेरी जिंदगी मसरूफ किया कर

कभी अजनबी बन के आ
कभी हमसफ़र बन के
कभी आगाज से पहले
कभी अंजाम के बाद

तू ऐसे ही बिना दस्तक आया कर
तेरे खयालों से मेरी जिंदगी मसरूफ किया कर

तेरे अल्फाजों से मेरी अधुरी नज्म पुरी कर
कोई धुन सी बनकर मेरी जिंदगी मलंग कर
यूहीं रंगों में घुलकर मेरे कैनवास पर उतर
तू ऐसे ही बिना दस्तक आया कर.....!

यादों के बसेरों में एक हसीन अफ़साना तेरा हो
रंज की शाम में तेरी अफीमी मुस्कान हो
तन्हाईयों के शोर में तेरा एहसास हो
सपनों की राह पर तेरा साथ हो

चल माहियाँ,
जहा सवालों का दायरा न हो
ना रिवायतों की कोई गर्दिश
ना बेवफाई का सिलसिला
ना पहेलियों की उलझन कोई
चल वहां दूर समंदर परे
तेरे बाहों के ताबीज़ में
अपने-अपने राहों से वाकिफ
सदियों का इंतजार मिटाने.........

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18 JAN 2020 AT 12:15

कब तक अपने वजूद से
शिकायते करते बैठू
कब तक ये चेहरों के
जंगल में दौड़ता रहूँ
देखा है मैंने,
कोई मस्त रहता कोई वीरान
सब अपने अपने रास्ते चलते रहते.....

तन्हाईयों के शोर में
खुद की आवाज़ खो सी गई थी
इसलिए यहां आना हुआ
क्योंकि
यह खुला आसमान
आजादी की धूप
उमंग भरी हवा
लुभाती है मुझ जैसे मुसाफिर को....
शायद रूह तक का सफर
यही से शुरू होता है...!

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18 NOV 2019 AT 14:56

यह जो तेरे ख्वाबों का शहर है;
इसमे कही खो सी गई थी
शायद तेरी परछाई मे गुम सी गई थी
अरमानों की तितलियाँ कही उड सी गई थी

मुहब्बत का जहर हमने भी पी लिया था
लगता है कुछ ज्यादा ही असर कर गया वो
सुलझी हुई राहों को गुमनाम कर गया वो
शायद ठोकर का लगना जरूरी था;
अंदर के वजूद को जगाने के लिए
वरना समझ में नहीं आता
"जिंदगी जीने के लिए है, बिताने के लिए नही"

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3 NOV 2019 AT 0:00

यादों में कहीं
बचपन के बेहिसाब पल मिल जाते है;
वो भी एक जहाँ था

जिस में जिम्मेदारी की हथक़डी नही थी
ना थी समझदारी की कोई आरजू
ना था हया का कोई परदा
ना थी कमाने की लिए कि दौड़
ना था रिवायतों का बोज
ना ही थी कोई रंज की शाम

नादानियों की गोद में
सादगी की राह पर
सपनों के लहर पर
माहतोब सी थी जिंदगी

गुमनाम हो गए वो सारे पल
फँस गए है दुनियादारी के दलदल में
बेगाना सा हुआ यह बचपन

अमन की बात मत कर ए दोस्त
क्योंकि बचपन वाला इतवार नही आता अब....

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9 OCT 2019 AT 0:37

आज वयाची चाळीशी ओलांडली
तरीपण जीव घाबरा होतो
बालपणीच्या आघातांना परत एकदा
दवापाण्याची गरज वाटतीये
बहुदा जखमांना आठवांची कीड लागली असावी..

इथे कोणाला म्हणून न्याय मिळाला हो
त्या कश्मिरच्या चिमुरडीवर झालेल्या
अत्याचाराचे काय झाले पुढे??
फक्त कवितेतून निषेध झाला
मूक मोर्चे निघाले सोबत कँडल मार्च पण झाला
पण खरंच काही फरक पडला का???
तेवढ्यापुरतं रक्त खवळल होतं
नंतर सर्व काही शांत....ढिम्म....!

अजूनही आठवतीये ती रात्र
जेव्हा स्तनांपाशी सुरू झालेली
तहान मांड्यांपाशी येऊन शमली होती
शरीराचा नव्हे तर कोवळ्या मनाचा बलात्कार होता तो
एका उमलत्या कळीच्या स्वप्नांचे विसर्जन होते ते...

कसं सांगू की रावण आपलाच कोणीतरी होता
कसं सांगू Father's Day साजरं न करण्याचा कारण
कसं सांगू की त्या नावाबद्दल आदर नाही तर दहशत, घृणा आहे मनात म्हणून.....

हो आजही वयाची चाळीशी ओलांडली
तरी जीव घाबरा होतो.....

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23 SEP 2019 AT 1:28

जिम्मेदारी के इस आलम ने
दुनिया से फासला बना दिया
कोशिश तो बेकरार की मेरे दोस्त
पर जिम्मेदारीयों ने मिलने नही दिया तुझसे
मन में सिर्फ यही रंजिश है की,
जिम्मेदारी के पटरी पें दौड़ते हुए
वक़्त की हसीन साज़िशों ने
किसी का न होने दिया....!

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6 AUG 2019 AT 2:48

बघ ना,पहाटेचे चार वाजलेत
अजूनही तो कोसळतोय बाहेर
जणू कित्येक वर्षांचे साचलेलं रितं होतय...
मला ना नेहमी हेवा वाटतो याचा
किती मनमुरादपणे बरसतोय
ना कोणाची चिंता ना पर्वा
वाट मिळेन तिकडे वाहतोय
अगदी मनमौजी.....!!

सांग ना,मनातल्या वादळाचं काय करू??
तिथे देखील आठवणींची दमदार बरसात सुरू आहे
फरक फक्त इतकाच की;
इथं डोळ्यातल्या निर्माल्याचा सडा दिसत नाही
या न दिसणा-या गोष्टी कमाल असतात रे,
हे प्रेम,शांततेच रडगाणं,झिरपत चाललेलं अस्तित्व इ.
तू मात्र निघून गेलास,या अदृश्य हवेसारखा
मागे काय साचलयं,
कुठे अडकलयं; याची पर्वा न करता..

बघ ना,मी आजही पेन आणि कागद घेऊन बसलीये
निदान आता तरी काठ गवसेल म्हणून..
पण आजही भावनांना शब्द मिळाले नाहीत..
हे आतल्या आत बरसत राहणं बहुदा
प्राक्तनातच लिहीलेलं असावं....!

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