होने दो आकाश सा मुकम्मल, उड़ने दो अरमानों को। ये जिस्म है, बंदिश-ओ-दीवार थोड़े न है।। और ये जो बदबख़्त दरिया सी, दिख रही हैं निगाहें उसकी। माना गहरी हैं बेहिसाब, पर अनकहा अज़ाब थोड़े न हैं।।
सुनो, सुनो क्या कह रही है निगाह उसकी, होगा तुम्हारे पास लश्कर जंग लड़ने को, पर वो जो निहत्थी दिख रही है, खुद में लश्कर है। उसे क्या मार लोगे, तुम बताओ? जिसकी कमबख्त नज़रें ही नश्तर हैं।।