मैं ....
मैं हस्ती-मुस्कुराती जो खुद को साथ लाई थी ।
अब भूल गई हूं? क्या मैं भी कभी मुस्कुराई थी ।
थोड़ी खिट्-खिट् होगी तो सहना होगा, पर साथ तुम्हें उसी के रहना होगा ।
आखिर मुझे ही क्यों सिखना होगा, सही क्या सिर्फ उसका ही कहना होगा ।
जहां मुझसे गलतियां गिनवाई जाएंगी ।
तो उसकी गलती नादानी बतलाई जाएगी ।
यह अंतर का भाव कैसा क्या मुझे कोई बताएगा ।
इस बंधन में ताव कैसा क्या वो ही अपना-अपना जताएगा ।
एक पैर पर खड़ी मैं ,सब तुझे ही करना होगा ।
बच्ची नही है तू ,तुझे ही सिर्फ बड़ा होना होगा ।
फिर तो मैं ही समझदार हूं जब इस बात में इतनी सच्चाई थी ।
तो क्यूं उठाते मेरे आवाज मेरी बोलती बंद उसने करवाई थी ।
यह मुझ अकेले को जो फर्क की परख कराई जा रही है ।
इस कहानी का कोई अंत नहीं ,एक बार फिर वही रीत दोहराही जा रही हैं ।
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