आज खाँसने की आवाज़ नहीं आ रही थी,
न ही मुर्गे की बांग से पहले कोई बड़बड़ाहट थी।
खटिया चरमराकर कहीं दम तो नहीं तोड़ गयी?
जो बुढ़िया आज इतनी गहरी नींद सो गई।
मौसम भी साफ है! बारिश का कोई नामो निशां नहीं,
शमशान ले जाने की भी कहीं से कोई बात सुनने में आयी नहीं,
बहु भी अब तक चाय लायी नहीं।
बेचारी बेज़ुबान!
माह-डेढ़ माह से नहीं सीधी खड़ी,
पर काम पर है हर वक़्त अड़ी,
साड़ी के पल्लू से कमर बांधे,
दो जिस्मों को खदेड़ते हुए चूल्हा-चौका, बरतन-बच्चे
और सभी कुछ है साधे।
ज़रा बाहर हो ही आऊं,
अम्मा की खैर पूछने चले ही जाऊं।
लो! अब ये बच्चे क्यों रोन पड़े,
अम्मा की लाठी तो ज्यूँ की त्युं ही है खड़े।
हाए रे! ये क्या ?
बेचारी... सात लड़कियों को छोड़ चली,
आठवीं को शायद साथ लिए।
मेरा कलेजा मुँह तक चला आया,
पर अम्मा की उम्मीद ने,अब भी समंदर है खुद में समाया।
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