किताब-ए-ज़ीस्त में मुझे कोई निसाब ना मिला!
बहुत सवाल थे मिरे जिन्हें जवाब ना मिला!
बहुत मिले मुझे, मगर कोई सवाब ना मिला!
चले जो साथ दूर तक वो हम-रिकाब ना मिला!
गुज़र गई ये उम्र बस, चराग़-ए-ग़म के साए में,
जो रोशनी करे मुझे, वो आफ़ताब ना मिला!
बड़ी थी आरज़ू मिरी, हक़ीक़तें सँवार लूँ,
नसीब ख़ार ही हुए, कोई गुलाब ना मिला!
झुलस गए बुरी तरह से हम तो दश्त-ए-इश्क़ में,
कि आब, अब्र छोड़िए, हमें सराब ना मिला!
किसी हसीन याद का चलो ये फ़ायदा हुआ,
कटी है उम्र हिज्र में, मगर अज़ाब ना मिला!
तलाशती रही सदा, वो जिस में अक्स पा सकूँ,
पर आईने-सा,कोई शख़्स, बे-नक़ाब ना मिला!
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