आंखों में नींद नहीं है
ख्वाहिशों में गुम हूं ।
तन्हाइयों की चादर में खुद को ढक कर
सुरक्षित सा महसूस करता हूं।
आंखें खुली तो है पर
देखता वही, जो चाहता हूं ।
कान भी खुले तो हैं मगर
सुनता वही, जो चाहता हूं ।
मुंह भी है खुला है पर
बोलता वही, जो चाहता हूं ।
पीछा कर रहा हूं खुद का ही
अपनी बेहतर शख्सियत की तलाश में ।
पर शायद पीछा करते-करते
मैं खुद को ही पीछे छोड़ चुका हूं ।
खुद को बेहतर बनाने में
मैं मशगूल,
देख नही पा रहा हूं उन
खुशियों को जिनमे मैं हंसा करता था।
सुन नहीं पा रहा हूं उन
किस्सों को जिनको सुन कर मुस्कुराता था।
समझ नहीं पा रहा हूं
उन इशारों को जिनमें
हंसी छिपी हुई है।
जीने के तरीके तो मुझे मालूम है
पर मैं जीना कैसे है
यह भूल चुका हूं ||
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