मैं कहूँ तुमसे
आज एक बार फिर
उसी पुरानी टपरी पर चाय पीने को
तो आओगे क्या ???
या मेरी बात सुनकर
मन में अतीत वर्तमान बुनकर
फिर वर्तमान को अतीत के ऊपर चुनकर
टाल दोगे मेरी बात को
भुला दोगे हमारे साथ को
और फेर लोगे मुँह
ये सोचकर कि
शायद…..
अब ये ही सही होगा
हमारा फिर से मिलना नहीं होगा-
And
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वो देखते तो हैं पर उन्हें दिखता नहीं है
एक विचार भी अच्छे से टिकता नहीं है
और यूँ तो ख़ुद को सही दिखाने को
वो बेचते हज़ार बातें हैं……
और यूँ तो ख़ुद को सही दिखाने को
वो बेचते हज़ार बातें हैं……
पर थोड़े अनुभवी हो गए हैं हम भी
कि अब उनका कोई तथ्य बिकता नहीं है-
आज फिर नए सफ़र की एक नई शुरुआत हो रही है
सपनों को, इच्छाओं को पूरा करने की बात हो रही है
जो कुछ पूरा कर पाए उसकी ख़ुशी है
जो पिछला कुछ अधूरा रह गया उससे सीख ली है
नए सफ़र की तैयारी नए जुनून के साथ हो रही है
चारों तरफ़ 2025 की मुबारकबाद हो रही है
-
कुछ शिकायतें
खामोशी का दामन कभी
छोड़ नहीं पाती
वो ओढ़े रहती हैं
खामोशी का घूँघट
और चुप-चाप
इंतज़ार करती हैं
उन दो शब्दों का
जो इस घूँघट को उठाएँगे
वे शब्द जो थोड़ा
दिल को सुकून पहुँचाएँगे
वे शब्द जो खामोशी का
दामन छुड़ाएँगे
वे शब्द जो
नाराज़ होने का हक़ दे जाएँगे
वे शब्द जो
इसे अपना कह जाएँगे-
‘वे कुछ लोग’
सामने आए बिना किसी के सहारे
बंदूक चलानी है???
किसी न किसी का कंधा
मिल ही जाएगा!!!
बिना काम किए
मंज़िल पानी है???
कोई स्वामी अंधा
मिल ही जाएगा!!!
ये किसी एक दिन
कुछ साबित करने की ख़ातिर…..
जो सबूत इकट्ठे करते हो तुम
अपना गला सँभाल कर रखना
कभी कोई फंदा
मिल ही जाएगा!!!!-
श्रम
तपती धूप में
श्रम बिंदु हों माथे पर
और अधरों पर
फैली हो मुस्कान बड़ी
तब मेहनत भय को
खा जाती है
हो चाहे सामने
कितनी मुश्किल खड़ी
धैर्य बगल से झाँख तब
हौसला बढ़ाता दिखता है
सामने खड़ा पहाड़ भी हो
वो तुम्हारे सामने झुकता है-
‘मैं आज के ज़माने की लड़की’
मैं आज के ज़माने की लड़की
ज़माने को ख़ुद से आगे निकलते देख रही हूँ
मैं अपनों को, अपने सपनों को सहेजने में व्यस्त
कुछ शौक़ अपने, अपनी खिड़की से बाहर फेंक रही हूँ
मैं आज के ज़माने की लड़की
ज़माने को ख़ुद से आगे निकलते देख रही हूँ
मैं थकती हूँ, दो पल ठहरती हूँ,
फिर एक दौड़ में शामिल होने को आगे बढ़ती हूँ
अपने अरमानों को जलती आँखों में
थोड़ा-थोड़ा सेक रही हूँ
मैं आज के ज़माने की लड़की
ज़माने को ख़ुद से आगे निकलते देख रही हूँ
कभी पत्थर तो कभी चट्टानें आती हैं
मेरे रास्ते से मुझे भटकाना चाहती हैं
मैं मुश्किलों के आगे घुटने नहीं टेक रही हूँ
मैं आज के ज़माने की लड़की
ज़माने को ख़ुद से आगे निकलते देख रही हूँ-
विराम चिह्नों में रहते मैं और तुम
मेरे प्रश्न चिह्नों पर
तुम सदा पूर्ण विराम लगाने का
प्रयास मत करना
कभी कुछ पल ठहर
अल्प विराम ले
मेरी दो पल प्रतीक्षा करना
कुछ प्रश्नों के उत्तर स्वयं पाकर
विस्मय से मैं तुम्हें पुकारूँगी
तुम सम्बन्धों की पूर्णता रखने को
अपना अर्ध निभाना,
अर्ध मेरे हवाले रखना-
अपनी कमज़ोरियों को छिपाने के लिए
चापलूस छाँटते हैं लोग
उन्हें बनाए रखने को
कुछ पद, कुछ कुर्सियाँ बाँटते हैं लोग
फिर मिल शुरू करते हैं धाँधलेबाज़ी
रोज़ गड़ी जाती है नई चालबाज़ी
नैतिकता-सच्चाई-ईमानदारी की फिर
लकीर मिटाई जाती है
अपनों के बीच बैठ
झूठी शान बढ़ाई जाती है
मेहनत कर आगे बढ़ने का शौक
अब पुराना सा हो गया है
आने वाली पीढ़ी अब यही सीखेगी
उत्तम विचारों का अब गुज़रा ज़माना हो गया है-
फ़ुरसत वाला रविवार
दिल के ख़यालों को
कलम पन्ने पर उतारने को तैयार नहीं है
कहती है कि तेरे दिल में
वो दर्द, वो तड़प और टूटा प्यार नहीं है
हैरान हूँ मैं अपने खुश रहने के दिखावे पे
कमाल कलाकार हूँ कि ख़ुद मुझे मुझपे ऐतबार नहीं है
इस दौड़भाग भरी ज़िंदगी में
अपने दर्द और ज़ख़म किसको दिखाऊँ
किसी की ज़िंदगी में अब फ़ुरसत वाला रविवार नहीं है
हाँ मुझे याद है इस सोमवार से अगले सोमवार के बीच
कहीं तो चुपके से एक रविवार भी आता है
ऐसे झट से निकलता है कि मिलता करार नहीं है
और आज यूँ आधी रात को कलम को कुछ लिखने को कहा
तो ऐसे अनसुना करती है जैसे अब इसपे मेरा अधिकार नहीं है-