पंक्ति_पंडित💕 ۰۪۫P۪۫۰۰۪۫P۪۫۰   (अद्वितीय)
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Joined 24 October 2018


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गैरों को देख कर क्या तू मंजिल चुना करता है
वो क्या ही आगे जाएगा, जो बस पीछा किया करता है

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अब तारें नहीं,
तेरे नज्मों की ये स्याह चमकती है
काली रातों को जब तेरी मैं
डायरी के पन्ने पलटती हूँ

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उसने पूछा, तुम ऐसे एक आंख से कितना देख लेती हो?
मैंने कहा, एक नज़र से तो बच नहीं पाए, और क्या चाहते हो? 😸😸😸😸

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फितरत का बदलना तो
वक्त का ही बदलना है
जो छुपकर चाँद देखे थे
उसे अब तारों की चाहत है

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तारों की आई थी बारात

वो चांद विदा ले चली
रजनी को भी रुला गयी

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और खींच कर दो लगा
फिर दोबारा रूठना ही भूल जाना है

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इन ख्वाहिशों एक पल भी
सुबह-शाम ये आवारा बन घूमा करते हैं

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जरूर घरों में बर्तन धो रहे होंगे

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तू उसे क्यूँ न आई?

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कभी खत्म हुआ है क्या
यहाँ तो पल भर में ही
कुछ नयी यादें जन्म लेती है

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