वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं
हिंसावेगमुदरोपस्थवेगम्।
एतान् वेगान् विषहेद वै तपस्वी
निन्दा चास्य हृदयँ नोपहन्यात्।।

सन्यासी तपस्वी हो कर इन छ: वेगों को अपने अधीन रखना चाहिए। वे हैं वाणी का वेग, मन का वेग, क्रोध का वेग, हिंसा का वेग, उदर का क्षुधादि वेग और उपस्थ(मूत्रेन्द्रिय) का वासनादि का वेग को अपने वश में अपने अधीन रखना चाहिये। ऐसा इस लिए करना चाहिए कि दूसरों द्वारा की हुई निंदा उसके हृदय में विकार न पैदा कर सके।

- आचार्य त्रिपाठी जी