एकमप्यक्षरं यस्तु गुरु: शिष्ये निवेदयेत्।
पृथिव्यां नास्ति तद्द्रव्यं यद्दत्वा ह्यनृणी भवेत्।।
'गुरु' शिष्य को जो एक अक्षर भी सिखाये, तो उसके बदले में पृथ्वी का कोई ऐसा धन नहीं, जो देकर गुरु के ऋण में से मुक्त हो सकें l-
ज्ञानं विना मुक्तिपदं लभ्यते गुरुभक्तितः।
गुरोः समानतो नान्यत् साधनं गुरुमार्गिणाम्।।
गुरुदेव के प्रति (अनन्य) भक्ति से ज्ञान के बिना भी मोक्षपद मिलता है , गुरु के मार्ग पर चलने वालों के लिए गुरुदेव के समान अन्य कोई साधन नहीं है।-
गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो गुरौ निष्ठा परं तपः।
गुरोः परतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि ते।।
गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम तप है , गुरु से अधिक और कुछ नहीं है यह मैं तीन बार कहता हूँ।
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श्रेयान्स्वधर्मौ विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।
अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है,अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।-
सूर्यं प्रति रजः क्षिप्तं
स्वचक्षुषि पतिष्यति।
बुधान् प्रति कृतावज्ञा
सा तथा तस्य भाविनी।।
सूर्य की ओर उड़ाई गई धूल अपनी ही आँखों में गिरती है, उसी प्रकार विद्वान् जनों के विषय में किया हुआ अपमान उसी करने वाले के साथ ही घटित होता है।-
सत्यं स्वर्गस्य सोपानं
पारावारस्य नौरिव।
न पावनतमं किञ्चित्
सत्यादभ्यधिकं क्वचित्।।
जैसे नाव के द्वारा समुद्र पार किया जाता हैं, उसी प्रकार स्वर्ग पहुंचने का सोपान सत्य हैं, सत्य से अधिक पावनकारी और कुछ नहीं हैं, इसलिए हमेशा सत्य के मार्ग पर चलने का प्रयास करना चाहिए।-
रथारूढो गच्छन्पथि मिलङतभूदेवपटलैः,
स्तुतिप्रादुर्भावं प्रतिपद मुपाकर्ण्य सदयः।
दयासिंधु र्भानुस्सकलजगता सिंधुसुतया,
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥
रथयात्रा की शुभकामनाएं----
विषकुम्भसहस्रेण गर्वं ज्ञनाप्नोति ज्ञवासुकि:।
वृश्चिको विन्दुमात्रेण वहत्यूर्ध्वं स्वकण्टकम्॥
भावार्थ---
अपने हजारों सिरों में विष कुम्भ रखने वाले वासुकी नाग कभी भी घमण्ड नहीं करते सर्वदा अपना मस्तक झुकाये रहते हैं, किन्तु मात्र एक बूंद विष रखने वाली विच्छू सदा अपना कांटा ( सिर ) ऊपर उठाए घूमती रहती है।-
"सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता"
मनुष्य को उसका कर्म ही सुख दुःख देता है, सृष्टि का आधार ही कर्म है,इसलिए ज्ञानी महात्मा किसी को भी दोषी नहीं मानते।
सुख दुःख का कारण जो अपने अन्दर ही खोजे वह सन्त है, ज्ञानी पुरुष सुख दुःख का कारण बाहर नही खोजते हैं, मनुष्य के दुख सुख का बाहर से कोई नाता नहीं है, यह कल्पना करना कि कोई मुझे दुःख या सुख दे रहा है भ्रमात्मक है,ऐसी कल्पना तो दूसरों के प्रति वैर भाव जगायेगी।
वस्तुतः सुख या दुःख कोई दे नहीं दे सकता है यह मन की कल्पना मात्र है, सुख या दुःख तो कर्म के फल हैं, सदा सर्वदा मन को समझाना चाहिए कि उसे जो भी सुख दुःखानुभव हो रहा है, वह उसी के कर्मों का फल है --
"कोउ न काहु सुख दुःख कर दाता।
निज कृत करम भोगु सब भ्राता।।"
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जैसे कठपुतलियाँ जादूगर के संकेत पर नृत्य करती है, वैसे ही हम भी ईश्वर की इच्छा पर नृत्य करते हैं, उनकी ही इच्छानुसार दुःख भोगते हैं अथवा कृपानुसार सुख का उपभोग करते हैं, सुख दुःख ईश्वरेच्छा से प्राप्त होते हैं अतएव सभी परिस्थितियों में उनका सन्तुलन समान होता है।
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