पं शिव प्रसाद त्रिपाठी "आचार्य"   (आचार्य त्रिपाठी जी)
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श्री मद्भागवत कथा वाचक
Joined 21 April 2019


श्री मद्भागवत कथा वाचक
Joined 21 April 2019

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाःस्वयमेव सम्पदः।।

अचानक किसी कार्य को नही कर डालना चाहिए , क्योंकि अचानक किया हुआ कार्य अज्ञान पूर्ण तथा अनेक प्रकार की विपत्तियों का कारण होता है, जो सोच विचारकर कार्य करते हैं, उनको सुख सम्पदाएँ स्वयं ही आकर चुन लेती हैं।

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संग का रंग मन को लगता ही है, ज्ञान, सदाचार, भक्ति, वैराग्य,आदि मे जो महापुरुष हमसे बढकर हो, उन्हीं का आदर्श अपनी दृष्टि के समक्ष रखना चाहिए।
नित्य इच्छा करें कि भगवान शंकराचार्य जी जैसा ज्ञान, महाप्रभु चैतन्य जी जैसी भक्ति और शुकदेव जी जैसा वैराग्य मुझे भी मिले।
प्रातः काल ऋषियों को याद करने से उनके सद्गुण हमारे जीवन में उतरते हैं,अपने अपने गोत्र के ऋषि को भी याद करना चाहिए।
आज तो लोगो को अपने गोत्र का भी नाम मालूम नहीं है, नित्य गोत्रोच्चारण करें, नित्य पूर्वजों का वंदन करें।
हमेशा सोचें कि मुझे ऋषि जैसा जीवन जीना है, ऋषि होना है ,विलासी नहीं होना है।

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शरीर रूपी स्थान को छोड़कर जहाँ चित्त रूपी पक्षी अपनी वासना के अनुसार जाता है, वहीं पर विचार करने पर आत्मा का अनुभव होता है।

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प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापर:।
मन्त्रमूलबलेनान्यो य: प्रिय: प्रिय एव स॥

अर्थात-
संसार में कोई मनुष्य दान देने से प्रिय होता है, दूसरा प्रिय वचन बोलने से प्रिय होता है और तीसरा मन्त्र और औषध के बल से प्रिय होता है, किन्तु जो वास्तव में प्रिय है, वह तो सदा प्रिय ही है ।

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अप्रियं पुरुषं चापि परद्रोहं परस्त्रियम्।
अधर्ममनृतं चैव दूरात् प्राज्ञो विवर्जयेत्।।
भावार्थ-
बुद्धिमान व्यक्ति को, अप्रिय व्यक्ति, दूसरों को क्षति पहुंचाने, पराई स्त्रियों, अधर्मपूर्ण आचरण और असत्य का दूर से ही त्याग कर देना चाहिए।

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चैते गुड़, बैसाखे तेल, जेठे पन्थ, असाढ़े बेल।
सावन साग, भादों दही, क्वार करेला, कातिक मही।।
अगहन जीरा, पूसे धना, माघे मिश्री, फागुन चना।
ई बारह जो देय बचाय, वहि घर बैद कबौं न जाय।।

यदि व्यक्ति चैत में गुड़, बैसाख में तेल, जेठ में यात्रा, आषाढ़ में बेल, सावन में साग, भादों में दही, क्वाँर में करेला, कार्तिक में मट्ठा अगहन में जीरा, पूस में धनिया, माघ में मिश्री और फागुन में चना, ये वस्तुएँ स्वास्थ्य के लिए कष्टकारक होती हैं, जिस घर में इनसे बचा जाता है, उस घर में वैद्य कभी नहीं आता क्योंकि लोग स्वस्थ बने रहते हैं।

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यात्रा में ग्रहण योग्य वस्तुएँ

रवि को पान , सोम को दर्पण,
मंगल को गुड़ करिये अर्पण ।
बुध को धनिया, बृहस्पति जीरा ,
शुक्र कहे मोहि दधि की पीरा ।
शनि कहे मोहि अदरक भावे ,
नर नारी निरोग घर आवे ।
माने नहि दिग् भरणी शूल ,
व्यास कहे सब चकनाचूर ।।

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हनुमानञ्जनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबल:।
‎रामेष्ट: फाल्गुनसख: पिङ्गाक्षोऽमितविक्रम:॥
‎उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशन:।
‎लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा ॥
‎द्वादशैतानि नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः।
‎स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च य: पठेत् ॥
‎तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत्।
‎राजद्वारे गह्वरे च भयं नास्ति कदाचन।।
‎श्रीहनुमान जी के जन्मोत्सव तिथि के
विषय में दो मत प्रचलित हैं–
‎१-चैत्र शुक्ल पूर्णिमा
‎२- कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी।
‎हनुमान जयन्ती के दिन श्रीहनुमानजी
की भक्तिपूर्वक आराधना करनी चाहिए।
‎श्रीहनुमज्जन्मोत्सव पर अनन्त शुभकामनाएँ
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क्रोध का परिवार

क्रोध की एक लाडली बहन है - जिद।
क्रोध की पत्नी है - हिंसा।
क्रोध का बडा भाई है - अंहकार।
क्रोध का बाप जिससे वह डरता है -भय।
क्रोध की बेटिया हैं - निंदा और चुगली।
क्रोध का बेटा है - बैर।
इस खानदान की नकचडी बहू है - ईर्ष्या।
क्रोध की पोती है - घृणा।
क्रोध की मां है - उपेक्षा।
और क्रोध का दादा है - द्वेष।
तो इस खानदान से हमेशा दूर रहें और हमेशा खुश रहो।

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आत्मा ही आत्मदेव, बुद्धि ही धुँधुली और मन धुँधकारी है, शरीर ही आत्मदेव का नगर है, जब किसी समय आत्मा की पुण्य पुकार को सुनकर बुद्धि तर्क-वितर्क करने लगती है, तभी मन रुपी धुँधकारी प्रबल होकर मनमानी करने लगता है, तब वह हर प्रकार से फँसकर भवसागर में गिरता है और नरक का भागी बनता है।
सन्यासी गुरु द्वारा बताए गये मार्ग का अनुसरण न करने वाली आत्मा मन के कारण दुःख प्राप्त करती है किन्तु वही आत्मा जब इन्द्रियों - गोकर्ण - द्वारा समझाये जाने पर अपने स्वरुप को जानकर ईश्वर से एकाकार होती है तो सुख प्राप्त करती है।

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