पल्लव सागर   ("Sagar- Ocean Of Love")
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Joined 1 August 2018


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कौन सा तरीका, तुझ पे आज़माऊँ,
ए रूठे दिल तुझे किस तरह मनाऊँ।

इक सनम का दिल, जो अंजान है प्यार से,
तुम दोनों की साझेदारी किस तरह कराऊँ।

तू कहता है मुझे, दीदार करना है उसका,
तू बता हया का पर्दा किस तरह हटाऊँ।

ख़त लिख के रखा है मेैंने रात में जाग के,
सोच रहा हूँ घर उसके किस तरह पहुचाऊँ।

अब किस कदर दिल का दिल बहलाऊँ,
ए रूठे दिल तुझे किस तरह मनाऊँ।

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याद आया आज फिर, दिन वो इतवार का,
इक अधूरा ख़त मिला इक अधूरे प्यार का।

संदूक मे पड़े-पड़े, अल्फ़ाज़ बूढ़े हो गये,
वक्त़ ना मिल पाया फिर कभी दीदार का।

गीला है काग़ज़, नमी थी या कोई गम था,
इंतज़ार में टपका इक आँसू था बैकार का।

आज जो बेठा सोचने तो ये समझ आया,
भुगता है किसी और ने दर्द मेरे बुखार का।

कट गया बेवजह जो मेरे इज़हार के लिये,
वो सर नही था मेरा, वो वृक्ष था देवदार का।

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इक एहसान कर चैन से फरियाद कर दे,
ए ज़िन्दगी मुझको दर्द से आज़ाद कर दे।

दिख रहा है हर तरफ बस रेत का समंदर,
उम्मीद की बोछार से वतन आबाद कर दे।

रात है ये अंधेरी जुगनुओ से दे मिला,
या फिर कोई रोशनी इजाद कर दे।

ना कर बूरा, तू बूरा सोचने वालो का,
तू ऐसा कर उस सोच को बर्बाद कर दे।

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आँखों में कोई ख़्वाब था शायद,
जाग ना जायें बस यही आस थी।

उम्मीद से जो हमने आइने में देखा,
उदास चेहरे की हँसी भी उदास थी।

हो गया है मर्ज हमे भूल जाने का,
वो तस्वीर कहाँ है जो कभी ख़ास थी।

शाम को थक के घर को हम आये,
सारी दिवारें पहले से बदहवास थी।

गुम हो गई है परछाई रात होते ही,
काश छू लेते जब तलक वो पास थी।

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अभी वक़्त है ठहर जा,
सोच के कदम बढ़ा,
वो देख सामने छाँव है,
क्यों तू धूप में खड़ा।

सुबह हुई या रात है,
देख दौनो साथ है,
चाँद तो चूमे फ़लक,
और सूरज भी चढ़ा।

काँटे, तुने चुने नही,
ना दर्द की चाह की,
जैसा भी है ज़ख़्म है,
क्या छोटा क्या बड़ा।

वो भी तेरे बस में नहीं,
ये भी तेरे बस में नहीं,
वो भी तुने देखा था,
ये भी तुझे देखना पड़ा।

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किस बात पे शर्मिंदा हो,
शुक्र है तुम चुनिंदा हो।

चैन मिलता है मौत के बाद,
दर्द है अगर तो ज़िंदा हो।

गर किसी से चोट लग जाये,
ज़रुरी नही वो दरिंदा हो।

जो जिस्म पुरा ढक नही पाये,
किस काम का वो पोशिंदा हो।

दुसरो के हुनर देख लो,
हर बात पर क्यों निंदा हो।

उड़ने के लिये आसमां चाहिये
हो हवा या परिंदा हो।

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दिल की हाँडी में सासें रखने दो ज़रा,
हया की प्लेट से उसे ढ़कने दो ज़रा।

अभी तो कहीं बदन में आग लगी है,
कच्चा-पक्का इश्क़ है पकने दो ज़रा।

छुयेंगी बूँदे तो मुसलसल धूआँ उठेगा,
कुछ देर और तवे को तपने दो ज़रा।

वक़्त को गुज़र जाने दो हौले-हौले,
इंतज़ार को ज़बाँ से टपकने दो ज़रा।

स्वाद कैसा है ये "सागर" बतायेगा,
जो बना है थोड़ा सा चखने दो ज़रा।

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जलती है जब शमा परवाने मचलते हैं
मौसम भी चिराग़ को देख बदलते हैं।

ये दिन मोहब्बत के, ये वस्ल की राते,
जिस्म मौम के हर घर में पिघलते हैं।

टूटती हैं कलियाँ काँटों के काघों पर,
हर जख़्म पे दीवाने बर्फ ही मलते हैं।

गुमनाम रहती है हया शहर से "सागर"
हुस्न के खोटे सिक्के बाज़ार मे चलते हैं।

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धरती पे कह दूँ आसमान पे कह दूँ,
गीता पे कह दूँ या कुरान पे कह दूँ।

चलो आज सारे अल्फ़ाज़ सजा के,
लहराते हुये तिरंगे की शान पे कह दूँ।

हँसते हुये लगाई अपनी जान की बाज़ी,
सरहद से ना लौट हर जवान पे कह दूँ।

जिसने बनाया है मिट्टी को भी सोना,
गाँव में बसे उस किसान पे कह दूँ।

इस देश के कितने ही नाम है "सागर",
भारत पे कह दूँ, हिन्दुस्तान पे कह दूँ।

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