कभी पन्नो पे स्याही से जिसकी तारीफ लिखती थी
अब वो अपना सा नहीं लगता
कभी बंद आंखों से जिसकी आहट पहचान लेती थी
अब वो अपना सा नहीं लगता
कभी जिसकी बेरूखी से आखें नम हो जाती थी
अब वो अपना सा नहीं लगता
कभी जिसकी शरारतों से चेहरे पे मुस्कान आती थी
अब वो अपना सा नहीं लगता
सब कुछ शायद पहले जैसा ही है
फिर क्यों अब वो अपना सा नहीं लगता ? — % &-
Follow me
मैं कोई लेखक नहीं जो लिखूं तो फसाना बन जाए बस ज़िन्दगी न... read more
पंख फैला के उड़ना चाहती हूं
आसमान से बातें करना चाहती हूं
उसके करीब जा के मुस्कुराना चाहती हूं,
यूं पाबंदियां न लगाओ मुझ पर
मोहब्बत का वास्ता देकर
अगर टूट गए सपने मेरे
तो मुझे समेट न पाओगे,
फिरती रहूंगी गलियों गलियों यूंही
पर तुम तक न आ पाऊंगी
कहने को तो कहते हो
बेहद फ़िक्र करते हो मेरी
बस मुझे ही नजर नहीं आती
ये बेबसी तेरी।-
ये कैसा कहर हैं कुदरत का
अपनो से दूर रह के
अपनों को बचाना हैं
मसला ये हैं कि बातें भी करनी हैं
रूबरू भी होना हैं
पर चेहरे पर नकाब भी चढ़ाना है
प्रकृति का भी गजब फैसला हैं
जिसकी कद्र नही की हमने
आज उसी के लिए सबको तरसना हैं
कब थमेगा ये मौत का आगाज कुछ पता नहीं
करना बस इतना हैं खुद को नकारात्मक करके
बाकी सबको सकारात्मक करना हैं!!
-
कुछ रिश्ते रेत की तरह फिसलते जा रहे हैं हाथों से
कुछ जज्बात हर रोज पुराने पन्नों में खुद को ढूंढे जा रहे
कहने वाले यूं ही कहते हैं बदल जाते हैं लोग नए रिश्ते मिलने से
पर कसूर तो पूराने रिश्तो का है जिसे खुद के रिश्ते भी यकीन नहीं होता-
वैसे तो बातों में रखा नहीं कुछ
भुला देने की आदतें पुरानी है
अगर झुकने से सम्भल जाए रिश्ते हमारे
तो चलो आज भी हम ही झुक जाते हैं-
हम घुमते रहे उनकी गलियों में हर रोज
बस एक बार उन्हें देखने को
और उनकी बेरुखी तो देखिए
मुंह मोड़ गए हमें देख के-
इन चंद महीनों में
करीब आए दुर हुए
फना हो गए एक-दूसरे की मोहब्बत में
बेखबर इस बात से
ये चंद रातें
ये चंद बातें
ये चंद मुलाकातें
बस चंद दिनों के लिए थी
-
सोच रही आज
मुंह मोड़ लु
अपने ही कलम से
मुंह मोड़ लु
अपने ही लिखें जज्बात से
मुंह मोड़ लु
साथ बिताए लम्हों से
क्योंकि था जिसके लिए इस दिल में जज्बात
उसी ने रूबरू करा दिया
मुझे अपने व्यस्त होने के अंदाज़ से-