जलते हुए चराग़ को आँधी से क्या गिला,
जो जल रहा हो शौक़ से, जलने से क्या गिला?
तूफ़ाँ की ज़िद भी देख, मेरी अना भी देख,
मैं ख़ाक होके हँस दिया, मुझको है क्या गिला?
जब शमां बुझी तो रात ने साये उगल दिए,
दिल टूट कर भी चुप रहा, टूटने से क्या गिला?
है ज़िंदगी ये खेल बस, हार-जीत का मज़ा,
जो बीत गया सो बीत गया, बीतने से क्या गिला?
ख़ामोशियों ने छेड़ दी, यादों की एक सदा,
जो सुन सका न कोई, सुनने से क्या गिला?
सपनों के पीछे भागते, "मीर" ने आँखों की खोई नींद
जो मिल न सके वो ख्वाब, खोने से क्या गिला?
-
"मुझसे किसी ने पूछा , हाल-ए-वतन बता"
मैं क्या जवाब देता, यहां हर शख़्स है बंटा
-
तू जो चाहे तो बदल जाएंगे मेरे अंदाज-ए-तसव्वुर
"ऐ ख़ुदा! क्या ऐसी कोई चीज़ है जो तुझसे नहीं होता?
-
वो दिल्लगी को बे-दिली से निभाते गए,
वफ़ा की जिस्म को शोले से जलाते गए।
फिर भी बेवफा वो मुझे ही कह गए,
हम शौक़ से अश्कों को आँखों में छिपाते गए।
-
#मुहब्बत #
कभी आफ़ताब बन जाना, कभी महताब बन जाना,
थाम कर हाथ रकीब का, तुम हमसाज़ बन जाना।
बड़ी मुश्किल से बनते हैं ये रिश्ते जन्मों-जन्म के,
तुम लगाकर दिल मोहब्बत में, इक एहसास बन जाना।
हर सफ़र में जो मिले ग़म, उसे तू तोहफ़ा समझ,
जो भी आए राह में काँटे, गुल अंदाज़ बन जाना।
चंद लम्हों की ये दुनिया, फकत़ एक ख़्वाब है,
जगमगाते दीप सा जलकर, रौशनी का राज़ बन जाना।
दुश्मनी का क्या भरोसा, आज है तो कल नहीं,
जो मिटा दे बैर दिल से, वो अंदाज़ बन जाना।
इश्क़ के अफ़साने सदियों तक जिंदा रहते हैं "मीर"
किसी के होकर मोहब्बत में, इक इतिहास बन जाना।
-
#सियासत
सियासत ने तो रिश्तों का वो हाल कर डाला,
इंसान को जानवर से भी बदतर बना डाला।
जहां भाईचारे की थी इमारत कभी खड़ी,
उस इमारत को नफरत से नींव तक गिरा डाला।
जब चंद पैसों में बिक जाता है ईमान हम सबका,
सियासत की इस खंजर ने हमें बेईमान बना डाला।
सच और झूठ का फर्क मिटा दिया उसने,
कातिल को मसीहा, मसीहा को गुनहगार बना डाला।
इंसानियत की सूरत अब पहचान में नहीं आती,
सियासत ने हर दिल को खंजर से घायल बना डाला।
जो थे कभी अपने, आज बेगाने से हो गए,
इस खेल ने हर रिश्ते को बेमानी बना डाला।
सियासत की चालों से बचना अब मुश्किल है,
हर वादा झूठ, हर ख़्वाब को धुआं बना डाला।
सच और इमानदारी अब एक ख्वाब से लगते हैं, "मीर"
सियासत ने इंसान को खुद से ही अंजान बना डाला ।..2
-
** #Raat Ka Dard #**
खामोशियों में लिपटी काली सी कफ़न है
ये रात की धड़कन है, यहाँ कई दर्द दफ़न हैं
कहीं पुर-नम है ज़मीं तो कहीं ख़ुश्क समां है
ये बज़्म-ए-सोज़-ए-निहानी का कैसा ज़मां है
एक आह से उठती हैं दिल में शरारे
शबनम के बदन में ये कैसी अगन है
हर ख़ित्त-ए-चमन पर एक वज़्द सा तारी है
इन ख़ार के फूलों का ये कैसा मकां है
आँखों से उतरते हैं ख़्वाबों के धुंधलके
तन्हाई के आलम में ये कैसा जुनूं है
हर साया जो गुज़रा, था कोई दर्द छिपाए
तारों की चुप्पी में भी आहों का सदन है
नदियों के किनारे पर रेत भी सिसकती है
दरिया के बहाव में भी गहरे राज़ गुमन है
आसमां भी झुक कर कुछ कहने को है बेताब "मीर
इस स्याह रात में क्या कोई उजाले का वतन है?
-
मेरे दिल की कायनात बदल दे मेरे मौला
अब आजिज़ हो गया हूं गुनाह करते-करते-
जलता रहता हूं ज़िक्र-ए-शब-ए-फ़िराक़ में
अब दिल मेरा इख्तियार में नहीं रहता-
खा गई कई तख्तो ताज एक *अना' ने ए 'मीर'
फिर तुम किस बात का गुरुर पाले रक्खे हो-