फ़ैज़ान महमूद   (फ़ैज़ान महमूद 'बशर')
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Joined 23 December 2017


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Joined 23 December 2017

वो बेवफ़ा है मगर न जाने क्यों ए'तिबार आ जाता है
उससे दूर होने की जद्दोजहद में इंतज़ार आ जाता है

उसकी ग़लती पे नाराज़गी का कभी ख्याल न आया
उसका चेहरा देख कर ही हम को प्यार आ जाता है

उस की मौजूदगी में कुछ तो ख़ास बात होगी 'बशर'
वो जब पास होता है तो दिल को क़रार आ जाता है

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शायद मेरे चेहरे पर मुस्कान की वजह मेरी तनहाई है
या फिर मेरे दर्द को समेटे हुए लफ़्ज़ों की रोशनाई है

कोई जागता है शबों को कोई मुंतज़िर रहा दीदार का
फ़क़त महफ़िल में अब इंतज़ार-ए-अंजुमन-आराई है

आदतन उसका इंतज़ार ता-उम्र के लिए फर्ज़ हो गया
दिल पे दस्तक दी किसी ने क्या वो फिर लौट आई है

वक़्त-ए-हिज्र बिछड़े तो अजनबिय्यत लगी उस से
होश में जब आए तो ख़्याल आया वो तो शनासाई है

हम कब बेख़बर थे उसकी मौजूदगी से 'बशर' लेकिन
उस से अपना हाल-ए-दिल बयान करने में रुस्वाई है

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ऐतराफ़-ए-जुर्म-ए-इश्क़ के बाद कई सारे ऐसे मक़ाम आए
विसाल में था फ़क़त एक नाम हिज्र में बहुतों के नाम आए

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अज़ाब ही था शायद तेरा इंतज़ार-ए-वस्ल मेरे लिए 'बशर'
जो शब-ए-हिज्र मैंने गुज़ारी वो तेरे हिस्से में भी आनी चाहिए

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इतना अज़ियत में गुज़रा था मेरा हिज्र कि आज भी 'बशर'
हाल-ए-आसूदा में हो कर भी ख़्वाब हौलनाक ही आते हैं

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ये फिर आखिरी दांव है मोहब्बत का
या अब मैं जीता या मैं हारा
गर हारा तो कहानी ख़त्म समझो
गर जीता तो लूंगा नाम तुम्हारा

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दिलकश गुलों के चमन से हम निकल आए हैं 'बशर'
अब तो बस हम हैं और सहरा नुमा ज़िंदगी मेरे आगे

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आज फिर राएगाँ गया घर से निकलना
आज फिर उनका दीदार नहीं हुआ
आज फिर दिल ने समझाया हम को
आज फिर किसी का इंतज़ार नहीं हुआ

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किसी के दिल से निकाले गए किसी के आंखों के तारे बने
जब उसकी हसरत मिट गई तब कहीं जा कर वो हमारे बने

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ज़ख़्म-ए-लहू की स्याही से दास्तां-ए-मोहब्बत लिखेंगे हम
गर कुछ रह भी गया उस को अपनी ग़फ़लत लिखेंगे हम

तराशा हुआ पत्थर नहीं एक आम मिट्टी के बुत ही तो हैं हम
यूं पीछे छोड़ कर आने की ख़्वाइश को हसरत लिखेंगे हम

मंज़िल को पाने की जुस्तजू में हमसफ़र खो गया कहीं मेरा
मुद्दत से जो जंग जारी है ख़ुद से उसे अदावत लिखेंगे हम

उस को भूलने की कोशिश में कितनी ही बार मारा ख़ुद को
बारहां मुझ पे गुज़रने वाली कैफ़ियत को आदत लिखेंगे हम

चंद रोज़ की ये ज़िंदगी और उस पर भी ख़ुशियों का क़हत
अब जो हासिल हो गए हैं ग़म उस को मुरव्वत लिखेंगे हम

जहां दिल लगता था 'बशर' आज वहां रक़ीबो की रवानी है
उसके क़रीब ना हो पाने की आरज़ू को वहशत लिखेंगे हम

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