फ़क़त आज को याद रखा जाता है कल को सब भूल जाते हैं
जिस ने अपने घर की दहलीज़ ख़त्म की उसके उसूल जाते हैं
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🙌आप लोगो के बीच आया - २३ १२ २०१७🙌
✒️लखनऊ ना तो तू मेरी चाह... read more
आख़िर किस दस्तूर को निभाते हो
यूं आंखों में चमक लिए इतराते हो
सामने अगर वो नज़र आ जाए तो
ज़िंदा हो कर भी क्यों मर जाते हो
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लबादा ओढ़े हुए हैं मेहनत का कहीं नाम नहीं है
काम का गुबार नज़र आया बस कहीं काम नहीं है
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हम लोग अंदर से अब ज़िंदा नहीं हैं
जी गुनाह कर के भी शर्मिंदा नहीं हैं
जो थे वो सब गुज़र गए मुझे छू कर
शाम गुज़ारने के लिए आइंदा नहीं हैं
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एक अरसा गुज़र गया किसी को देखे हुए
घर में आईना ना होने के अपने मसाएल हैं-
हैं ये मेरे आख़िरी अल्फ़ाज़ कि किसी का दिल ना दुखाऊं मैं
अच्छा कुछ भी याद ना रहे मुझे बुरा कुछ भी भूल ना पाऊं मैं
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सितमगर अब तू मेरे बर्दाश्त की इंतहा तो देख
ज़ख़्मो से रिसता हुआ लहू यह हौसला तो देख
उंगलियां जो अब उठीं हैं इस दौर के मुंसिफ पे
क़ातिल का जुर्म देख और उसकी सज़ा तो देख
हो जाते हो क्यों परेशान ख़ुद ही की आस में ही
आइने को देखने से पहले ख़ुदा की रज़ा तो देख
कहते हैं जो मामूली बाद-ए-क़ज़ा की ज़िंदगी है
बस अब तुम सफ़र-ए-क़ब्र की इब्तिदा तो देख
न चाहा चाहने वालों को तो ये हासिल हुआ हमें
उन के बदले हुए तेवर अंजाम-ए-सिला तो देख
'बशर' को नहीं है अब कोई गिला किसी और से
लरज़ते हुए होंठों से निकलती हुई गिला तो देख
कुछ तो लचक रखो अपने मिज़ाज में तुम 'बशर'
दौर-ए-आज़माइश से पहले उसकी खता तो देख-
ज़िंदगी न जाने अब किस के इंतज़ार में बसर होगी
ये और बात ठहरी कि किसी और के ही नज़र होगी
ज़िंदगी तो बस क़ज़ा तक पहुंचने का एक जरिया है
कल जो कोई था आज वो नहीं रहा की ख़बर होगी
काग़ज़ पर गिरते लफ़्ज़ों को तमाशा समझने वाले
'बशर' तुम्हारी आँखें भी कभी अश्कों से तर होगी
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वो जो दिल-शनास था कभी अब अंजान हो गया है
वो जा चुका है मगर उसके होने का गुमान हो गया है
जिसे हासिल थी मुस्तक़िल रिहाइश मेरे दिल की वो
ना चाहने के बाद 'बशर' दिल का मेहमान हो गया है
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तसव्वुर मत किया कर उनका जो बिखर जाते हैं
हसरतें हों या फिर हो ख़्वाब सब ही मर जाते हैं
जिन्हें उसने अपना कहा वो जी गए सब 'बशर'
और वो जो उसके ना हो सके वो किधर जाते हैं
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