काश तू बैठे कभी मेरे बगल में
तुझे लिखता हूँ अपनी हर ग़ज़ल में,
तू पढ़े मेरे जज़्बात अपनी सुर्ख़ होठों से
लिखा है तेरा नाम नज्मों के पहल में।-
~ गाँव ~
क्या दिन गुज़ारे थे हमने अपनी गाँव में
वो हरे-भरे पेड़ों की ठंडी-ठंडी छाँव में,
सादगी में होती थी कभी ज़िन्दगी बसर
आज शहर की चकाचौंध बढ़ी भाव में,
खेतों की पगठंडी पर जो दौड़ लगाई थी
वो बचपन खोया ज़िन्दगी की पड़ाव में,
बड़ी शान से गाँव में घूम आया करते थे
बड़ा स्नेह मिला उन अपनों की लगाव में,
जिनके नाम से हमें जानते थे गाँव वाले
नकमस्तक होते थे दादा जी के पाँव में,
आज कितना भी आगे निकल जाए हम
कुछ कमी लगती ज़िंदगी के हर दाँव में।-
अपनी भावनाओं को मैं ह्रदय में उतारती हूँ
जीवन की हर बात मैं शब्दों में लिखती हूँ,
जब से मुझे कलम का सहारा मिल गया है
मन की स्याही कोरे काग़ज़ पर बिखेरती हूँ।-
इन निगाहों में क़ैद हमेशा तेरी तस्वीर है
मेरी जहन में तेरे क़िरदार की अकसीर है।-
जैसे श्रृंगार के रूप में माथे पर बिंदी अच्छी लगती है
वैसे ही भारतीयों की जुबान पर हिंदी अच्छी लगती है।-
नकाबों के सहारे ख़ुद को गुमनाम कर गए
अपनी ही फ़ितरत ख़ुद वो बदनाम कर गए,
अब कोई क्या ही बिगाड़ेगा क़िस्मत ‘गिरी’ का
जब अपनी ज़िंदगी कान्हा जी के नाम कर गए।-