माहोल तो दशहरा का था। पर तू न था। मिठाई मुँह में था। पर उसमे पहले जैसा स्वाद न था। अज्ज के दिन भी मैं सुना था। शायद आज भी जो तेरे लिए रोना था। राह तो चुप चाप न था। पर ये आँखे उस राह पर तुम्हारी चुप्पी पा रही थी। ये दिन न रुका हमारे लिए। दिन गई रात आयी। पर हम ये दिन भी गुजरे तेरे बिन।
यंहा चारो और शोर है,पर ये दिल तुम्हारी ख़ामोशी में खोया रहता है।में अकेले नहीं हूँ,पर अकेला हूँ।यह राह भी आज तुम्हारा इंतजार कर रहा है।ये आँखों की बरसात से ये सड़क भी गिला है।यहाँ सब है।बस तुम्हारी कमी में ये सब कम लगने लगा है।
How to come out from the drakness to light.It's only a tug-of-war amid you and your time.In what manner you apply your strategy & win the race.how much impactful your blueprint is.how to maintain your protocol... 🖤