लिखूं या ना लिखूं,
क्या ही फ़र्क पड़ता है..
मेरी कलम को पता है,
सादगी तुम्हारी...
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मुद्दतों से तलाश है उसकी, मुद्दतों से मिला नहीं खुद से।
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लिखूं या ना लिखूं,
क्या ही फ़र्क पड़ता है..
मेरी कलम को पता है,
सादगी तुम्हारी...
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जिस मोड़ से इश्क़ अधूरा रह जाता है,
बस, वही से शायरी का सिलसिला शुरू हो जाता है..-
मेरे कलम की स्याही है कि ख़त्म होती ही नहीं,
तेरी तारीफों के सिवा भी मुझे कुछ आता ही नहीं..।-
बस इन्ही रंगों से है,
ख़याल तुम्हारे...
महकते से, मुस्कुराते से..❤️-
तुझ को सोचा तो बहुत पर लिखा कम है,
कि तेरी तारीफ़ के क़ाबिल मेरे अल्फ़ाज़ कहाँ...-
फिर से तेरी यादों का मेरे दिल में बवंडर है,
मौसम वही, सर्दी वही, वही दिलकश दिसंबर है...-
फ़ुरसत में वो याद कर लेते थे हमें,
और हम उन्हें ख़ास समझ बैठे...-
क्या लिखूं कि छु लूँ मन तुम्हारा,
क्या लिखूं कि हमारी बात हो...-