Patni Manu Jain   (P. MANU JAIN)
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एक सकारात्मक सोच .……, मंजिल की खोज में …।
Joined 10 July 2020


एक सकारात्मक सोच .……, मंजिल की खोज में …।
Joined 10 July 2020
13 MAY AT 20:58

रहता था पहले , कहीं भी मैं
अब रहता नहीं , कहीं भी मैं

जब तू नहीं थी ,मैं था ही नहीं
अब तू ही नहीं तो मैं हूँ ही नहीं

पहले कहता था बस कुछ सुनता नहीं
अब सुनता हूँ बस कुछ कहता नहीं

तुम हो या नहीं , कुछ पता ही नहीं
मैं रहता यहीं मगर हूँ ही नहीं

जब तुम आई यहाँ , फिर गई ही नहीं
बस दिखाती हो मुझको ,अब मिलती नहीं

बारिश की रिमझिम पसंद थी ना तुम्हें
ये आंखों की बूंदें मुझे पसंद ही नहीं

लड़ता था सबसे , कभी हँसा ही नहीं
अब लड़ता हूँ खुदसे , तुम हँसी क्यूँ नहीं ?

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2 MAY AT 10:04

ना चाँद है, ना ही कोई साथ है
टूटे रास्ते हैं, ना कही आश है
रास्ते बदले, कई मंजिले भी बदली
सबसे छूटकर एक ओर बढ़ चली
आसमा भी नहीं आने जमी भी नहीं
तकलीफो के पहाड़ों से नदियाँ बह चली
जीवन का जंगल घना हो रहा
जंगल में जीवन छूटा जा रहा
मुडकर भी देखा तो क्या ही मिलेगा
अंधेरे में जंगल घना ही दिखेगा
जीवन की डोर पल - पल खिंचती है
मैं थक जाऊ मगर वो, थकती नहीं है।
मैं थक जाऊ मगर वो, थकती नहीं है।

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23 APR AT 10:05

जाति धर्म में क्यों हम इंसानियत को भूल गए,
प्राण तो अनमोल है क्यूं धर्म से तौल रहे ।

क्या खुदा कुरान में मौत मांगता है ,
क्या गीता का श्लोक हैवान बनता है ,
एक जिंदगी पर टिकी है कई ज़िंदगियां ,
एक गोली ने उजाड़ दी सारी खुशियां ।

कहां है वो धर्म मुझे उस मिलवाओ,
उसके परिवार खानदान का परिचय बतलाओ ,
सिर्फ कल्पना में तुमने इंसान को भुला दिया ,
एक काल्पनिक धर्म में प्राणों को उजाड़ दिया ।

देखो जिंदा लाशें रोती और बिखलाती है ,
धर्म बताओ क्या तुम्हें अभी हंसी आती है,
अहा ! कैसा नरसंहार , धर्म निष्ठुर बनता है ,
नाम से बढ़कर उपनाम क्यों मेरी पहचान बनता है ।

मुझे बताओ ईश्वर क्या कहीं देखा है,
या सिर्फ धर्म का नगाड़ा बजते देखा है ,
छि: ! कितने बदतर हो भेड चाल चलते हो,
धर्म की परिभाषा को क्यों कलंकित करते हो ।

धर्म तो सत्कर्म का मार्ग कहता है,
अपने नाम पर यूं ना प्राण हरता है ,
किसकी खुशियों के लिए नरसंहार मचाते हो?
खुश है ईश्वर तो बतलाओ वो कहां रहता हैं ?

कौन हो तुम , कहां से आए और कहां जाओगे ?
जीवन चला गया एकबार तो क्या देख पाओगे....।

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20 APR AT 11:07

ना घोड़ा ना ऊंट , ना शेर ना गीदड़
कछुआ या खरगोश , ना ये ना वो
आज खुद से बढ़ते हैं, कुछ बेहतर करते है
चलो , आज कुछ बेहतर करते हैं ......
खुद से खुद को नाप तौल कर आगे बढ़ते हैं

इसकी उसकी सबकी सुनली ,अब खुद की सुनते है
मुझसे बेहतर कौन है, चलो उसे ढूंढते हैं
अपने जीवन पर अपनी ही छाप छोड़ते हैं
चलो , आज कुछ बेहतर करते हैं ......
खुद से खुद को नाप तौल कर आगे बढ़ते हैं

परिंदे उड़ जाएंगे , जब हम इतिहास बन जाएंगे
याद भले ही रहे सबको , मगर हम न देख पाएंगे
गलतियों से सीखे बस बोझ ढोना अब बंद करते हैं
चलो , आज कुछ बेहतर करते हैं ......
खुद से खुद को नाप तौल कर आगे बढ़ते हैं

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19 APR AT 12:52

जीवन की डगर में अक्सर लोग फिसलते हैं ।

ना ज़हमत करो पहाड़ों पर चढ़ने की
यहां सड़क पर भी लोग थकते हैं ।

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7 APR AT 8:03

" अग्नि परीक्षा "

राम बताओ तो परीक्षा क्यों ली थी
वन वन घूमी और साथ रही थी....

क्या होता इतना नाज़ुक विश्वास का पहिया
क्यों ली थी सिया की अग्नि परीक्षा.....
.....
जो चाहे कहले लोग क्यूं माना तुमने
थे मर्यादित तो न्याय पूरा करते
सिया के स्वाभाविक की भी लाज रखते
.....
निज सुत को देखकर क्यूं ना पास बुलाया
सिया की बात पर क्यूं ना विश्वास आया
.....
क्या त्याग केवल लोगों की मर्जी थी
या मन से भी त्याग दिया था....
.....
वन को गए राम सिया साथ गई थी
वनवास हुआ सिया को क्यूं ना साथ गए थे
.....

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31 MAR AT 11:58

नियति परखती नहीं ,
तो कोई निखरता नहीं...
जीवन गर होता आसान
तो कोई जीता नहीं...।

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31 MAR AT 9:04

कभी-कभी अनदेखी चीजें भी
जिंदगी आसान कर देती है....
जिसे लोग आस्था और विश्वास कहते है ।

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31 MAR AT 1:56

" कौन है हम ? "

देखो ... समाज कितना सुंदर है ?
भय का यहां बवंडर है
सब , सबसे ही डरते हैं
जिंदा रहकर भी रोज़ मरते हैं

बताओ... कौन यहां बलशाली है
जो राजा से लड़ जाता है वह लोगों से मर जाता है
जो राजा से जीता , वह स्वयं राजा बन जाता है ?
गर अंत तक जो ना टिक पाया समाज बाहर हो जाता है
अंत में सब चुप रहते , डर विजयी हो जाता है ।

मर कर भी यदि विजयी रहा तो अधिकार सुख को देखोगे
राजा बनकर अब तुम , लोगों पर , अत्याचार करोगे
अहा! दुरुपयोग हुआ उसके मरणासन्न का
मगर दंभ भरते हो तुम अपने नए अधिकार का

चाहते हो तुम अंतर्मन से सामूहिक बदलाव हो
मगर तुम्हें स्वीकार नहीं की व्यक्तिगत बदलाव हो

भाषण दे सकते हो घंटों
जय जय हो... वसुदेव कुटुंबकम्
फिर एक क्षण बाद ही कहते हो
जानते भी हो "कौन है हम ?"

हाय रे समाज तेरी मूरत बलशाली
आंखों में है सिर्फ डर , ना है पानी ...।

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27 MAR AT 17:56

एक ओर रक्ताभ किरणे एक ओर श्वेत प्रभा,
मंद मंद हवाओं में खेल अनोखा रचा गया ।

शशि ढूंढने आए देखो मरीचि कहां मिलेंगे,
गिरी शिखर के मध्य में वे छुप कर बैठेंगे।

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