Pulwama Attack : - " A Pain of Kashmir "
अजीब है ये वादी-ए-कश्मीर, गुलजार है बर्फ की चादर से..
आज क्यों!है ये खामोशी, मानो बयां कर रही है अपनों के ही मजार से..
रुख कर चुकी फौज-ए-हिंद पुलवामा की तरफ,भारत मां की इबादत लिए..
दूजे ओर घात लगा बैठे कुछ देहशतगऱद, ख्वाब-ए-जन्नत की चाहत लिए..
सोची समझी थी ये चाल,मौलाना मसूद के जिहाद में..
झोंके गए कुछ कश्मीरी चेहरे, जैश-ए-मुहम्मद के इत्तिहाद में..
फैली है यह खूनी रंगत,दरिया-ए-झेलम तेरी सूरत पर..
दफन हो गई ये अमर फौलादी जिस्म,वादी-ए-कश्मीर तेरी कुदरत पर..
दी गई नापाक तालीम, जन्नत-उल-फिरदौस के हसरत में..
जहन में पिरोई जिहादी ख्याल, वादी-ए-कश्मीर तेरे नुसरत में..
बेजान सी है ये चिनार दरख़्त, दर्द-ए-शिद्दत के शहादत में..
नहीं है लौटी इसकी नूरमाई रंगत,वादी-ए-कश्मीर के इबादत में..
महफूज है तेरी रूह ये वादी-ए-कश्मीर, पश्मीना के जतन में..
आखिर चल पड़ी है ये शहादत जिस्म, वतन-ए-हिंद के कफन में..-
मेरी खुद की कुछ रचनाएं :-
1. वेश्य... read more
26/11 MUMBAI ATTACK : - " ताज की जुबानी "
गवाह है ये मायानगरी , उन आतंकियों के गिरफ़्त की ..
सिखा गए कुछ आतंकि चेहरे , इंसानियत के शिकस्त की ..
अमर हुए न जाने कितने जवान , इस ताज के स्वाभिमान में ..
चिथड़े में पड़ी है ये लाशें , जिहादियों के रचाये श्मशान में..
रचाई गई नापाक सजिश , जिन्ना वाले पाक में..
शर्मसर हुए मजहब-ए-इंसानियत , मौलाना हाफिज की ताक में..
भेजे गए जिहादी हुजूम , ख्वाब-ए-जन्नत की चाह में..
बढ़ चली सैलाब-ए-कश्ती लाहौर से , अरब सागर की पनाह में..
बदल दी रंगत सफेद दिवारियों के , निहाते पर धाए सैलाब से ..
दागे गए न जाने बेसुमर गोले , बेहरामी दिलवाले कसाब से ..
याद रहेगी ये काली रात , आतंकियों के बनाये परिस्थियों में ..
अमर की गई तुकाराम की गाथा , गंगा में बहाये इनके अस्थियों में ..
कुर्बानी से महफूज मेरी आबरू , बताती है मैं किसी की लाज हूं ..
समेट रखी हूं दर्द-ए-शिद्दत गैरों के , क्योंकि मैं ताज हूं ..-
।। मां ।।
कभी रहती थी वो तेरी आंचल, छत की तरह मेरे तकदीर पर
आज महरूम है मेरी आंखें, एकटक देख रही तेरी तस्वीर पर
सजा रखे थे कभी सपनों से पर्रे ख्वाहिशे, आपके अनकहे जज्बात की
सपने तो हुए पूरे पर कशिश है, वह आखरी मुलाकात की
शोर कर रही ये वीरान सी खामोशी, इस घर के चार दीवारी से
बुझा रखे हैं ये दिये, न जाने कितने दिवाली से
कभी गुलजार भी थे ये आंगन, आपकी ममतारूपी दुलार की सहानुभूति में
आखिर दम तोड़ रही है ये चौखट, आपके न मिले स्पर्श की अनुभूति मे
समझ न सका वो हथेली के छाले, जो लिपटी है चूल्हे की राख से
आखिर चूम न सका वो सुरमई हथेली, जो भरी पड़ी है करूणा की शाख से
आबाद न हुए ये बाग, किसी अपने के ही इंतजार में
दहलीज पर पड़ी ये चादर, मानो किसी अपने के ही मजार में
रो रहा हूं पर आंसू नहीं, खलने लगी है बस आपकी कमी
लड़ रहा हूं बस अपनी जंग, लगने लगी ये दुनिया छोटी सी जमी-
हाथरस सामूहिक दुष्कर्म : - " एक निंदनीय अमानवीय घटना "
जली हूं , पर बुझी नहीं ..
थमी है सांसे , पर मरी नहीं ..
पहले जली ये आत्मा , दरिंदगी की हवस की आग में ..
आज फिर जली ये काया , इस समाज के अछूत आग में ..
नहीं सोई ये बेजान देह , अपने घर के आंगन में ..
ना चाहते हुए महरूम रही ये तन , अपने किलकारीयों से सने प्रांगण में ..
कब तक जलती रहेगी ये हवस की अग्नि , जातिवाद रुपी समाज की आड़ में ..
तब तक मिलती रहेगी खून में लिपटी निर्भया , सुनसान खेतों की झाड़ में ..
दरिंदगी में लिपट गए हैं कुछ नए चेहरे , अपनों के न दिये संस्कार से ..
बिलखती रही ये पार्थिव शरीर , अनजान हाथों से किया अंतिम संस्कार से ..
नहीं है नई ये दर्द रूपी दास्तां , ये जातिवाद में लिपटे समाज की है ..
आखिर फिर देखी एक पुरानी सच्चाई , भ्रष्ट सत्ताधारीओं में सिमटे स्वराज की है ..-
बाल-यौन शोषण :- " एक सामाजिक दुराचार "
क्यों!! सेहमी हुई हैं ये बचपन , एक अंधेरे के कोने में ..
याद आती है वो काली रात , हर एक पल के सोने में ..
लाड करने के बहाने , मेरी मासूमियत को निगल गए ..
जिस्म तो किये तार तार तूने , पर मेरी आत्मा को भी कुचल गए ..
मिटा के अपनी हवस की आग , खून में लिपटा छोड़ गए ..
प्यार से सिंची गई मेैं मासूमियत की कली , रौंदकर तुम तो चले गए ..
दे गए ये काली याद , जीवन के हर भरोसे का विनाश कर ..
प्रज्वलित रहेगी ये नफरत की अग्नि , हर जख्मों को बर्दाश्त कर ..
डर लग रहा है अब मानो , किसी अपने के भी दिए प्यार से ..
रोम-रोम तप पड़ते हैं मेरे , उस विश्वास-घाती दुलार से ..
दब रही है मेरी आवाज , इस जहां के बेतुके सवालों से ..
जाने क्यों!! हो गई पराई मैं , इस समाज के बढ़ते फासलों से ..
नहीं हैं ये मेरी खुद की कहानी , ये कहानी पूरे समाज की हैं ..
हैवानियत में लिपटे हैं कुछ इंसानी चेहरे , ये घटना पूरे समाज की हैं ..-
वृंदावन : - " विधवा - जीवन की एक अनदेखी दास्तान "
पति के वियोग से पनपी इस कुरीति को , अपनी किस्मत मान चुकी हूं ..
अपनों के मिलते तानें से , वृंदावन का रुख कर चुकी हूं ..
मलिन हैं मेरी दामन , सफेद कपड़ों में लिपटी हुई ..
धब्बे हैं अनेक विश्वासघाती अपनों के , इस दामन में सिमटी हुई ..
ना थकते थे ये जुबान , कभी किसी को रात भर कहानियां सुनाने में ..
आज थक पड़े हैं ये जुबान ,भीख की पुकार लगाने में ..
आ रहे हैं कई अनदेखे चेहरे , वृंदावन के कृष्ण की भक्ति में ..
ढूंढ रही हूं अपनों के चेहरे , ममता रूपी नेत्र की शक्ति में ..
आज भी मलंग है ये जुबान , राधे-राधे की जाप में ..
सिसकियों में ही घुट रही हैं ये जिंदगी , इस समाज के दिए श्राप में ..
गुजार दी जिंदगी के अंतिम घड़ियाँ , वृंदावन के कान्हा के भक्ति के सहारे ..
एकाकी की कफन में लिपटी हैं ये तन , चल पड़ी है अनजान कंधों के सहारे ..
क्या!! कसूर है इनका विधवा होना , कसूर हैं हमारा इनसे बिछड़े रहना ..
हमेशा परिभाषित करते रहेगी ये कुरीति , इस नव-पीढ़ी का पिछड़ते रहना ..
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किन्नर :- " एक सिमटती पहचान "
न नर हुँ न मादा , इस ब्रह्मांड की अनुठी संरचना हुँ ..
जज्बातों से लिपटे हैं दोनों प्राण मेरे , ईश्वर की इच्छा से पनपी रचना हूँ ..
सिमट रही है मेरी पहचान , गली मोहल्लों के चक्कर में ..
थक पड़े हैं ये इबादत के हाथ , दुखती तालियों के टक्कर में ..
अपनों से हुए पराया हम , इस समाज के कड़वे सवालों से ..
आखिर खुद के अस्तित्व से लड़ रहे हम , इस जहां के बनाए मसलों से ..
सनजो रखी है कुछ अनकही ख्वाहिशें , इस बिलखते मन के खाने में ..
ना चाहते हुए भी बिक रहे हैं ये तन , गुमनाम कोठियों के तहखाने में ..
झुकी रहती है हमारी निगाहें , समाज के हीन नजरिए से ..
चूर हो रहे हैं अरमानों में लिपटे आत्मसम्मान , परिवेश के तुझ रवैये से ..
मिल गई हमें संविधानिक सौगात , तीसरे दर्जे के रूप में ..
आखिर कब मिलेगी बुनियादी अधिकार , भारतीय नागरिक के स्वरूप में ..
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INDEPENDENCE DAY : - " स्वाधीनता के मूल मायने "
पूरे किए 75 वर्ष , स्वाधीनता के सधर्ष से ..
तोड़ी हमने गुलामी की जंजीरें , क्रांतिकारियों के उत्कर्ष से ..
नहीं है स्वाधीनता के मूल मायने , राजनीतिक आजादी से ..
जोड़नी है स्वाधीनता के नए आयाम , व्यक्तिगत आजादी से ..
क्यों ?? हर सुनसान गलियों में , जिस्म की बोली लगती है ..
क्यों ?? भारत की निर्भया , खौफ की चोली लपेटे रखती है ..
पीस रही है दलितों की पीढ़ी , जातिवाद के नाम पर ..
महजब के रक्षक बन रहे हैं भक्षक , धर्मवाद के नाम पर ..
बुझ रही है किसानों के जीवन की लौ , कर्ज की मार लिए ..
सड़कों पर गुम हो रहे हैं कुछ अधूरे बचपन , चाचा नेहरू का प्यार लिए ..
मेहनतकशो के मेहनत में , दौलतमंदो का कब्जा हैं ..
सुलग रही है ये जिंदगी आधिकारों की मशाल लिए , यही मूल स्वाधीनता की सजदा हैं ..
नहीं है कोई सीमित अल्फाज , स्वाधीनता के परिभाषा की ..
बनानी है हमें निरपेक्ष स्वाधीनता की भाषा , शहीद सेनानियों के अभिलाषा की ..
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कन्या-भ्रूण हत्या (Female Foeticide) :- " एक सामाजिक कुकर्म "
पूजी गई मैं नौं दिन , नवरात्रि के आसन पे ..
नहीं पली मैं नौं महीने , बाबुल तेरे शासन पे ..
कतरा-कतरा पी रही थी , कोख में मानो जी रही थी ..
फूल रही थी सांसे मेरी , कोख में मानो सिमट रही थी ..
मचल रहे थे मेरे पाव , इस सिमटती दुनिया से निकलने को ..
व्याकुल थे मेरे जुबान , मां की पुकार लगाने को ..
आखिर रंग ली तुने अपने हाथ , मेरे जिंदगी के साए में ..
कुछ संजोए ख्वाहिशें रह गई अधूरी , मेरी किस्मत के माये में ..
थम गई मेरी हर वो धड़कन , जो मां के लहू से धड़कती थी ..
बुझ गई मेरी हर वो आकांक्षाए , जो मां के अरमानों से पनपती थी ..
यह कर्म नहीं कुकर्म है , नारी के उभरते अस्तित्व का ..
यह अर्पण नहीं दर्पण है , इस उभरते समाज के व्यक्तित्व का ..-
KARGIL : - " एक अमर शौर्य गाथा "
लिख रहा हूं शौर्य गाथा , उन अमर जवानों के सहादत में ..
टपक रहे हैं ये लहू रूपी आंसू , उन शहीदों के इबादत में ..
जहां भेजी गई थी पैगाम-ए-अमन , वजीर-ए-पाक के लाहौर में ..
वही रचाई गई थी नापाक साजिश , कारगिल के एक छोर में ..
यह जंग नहीं एक चाल थी , मुशर्रफ के नापाक इरादों का ..
दिखाई हमने उसे अपनी औकात , भारत से किये झूठे वादों का ..
दागे जा रहे थे बेशुमार गोलें , जवान-ए-हिंद के सीने में ..
ढेर हुए जा रहे थे फौज-ए-पाक , हिंदुस्तानियों के जीतोड़ हौसले में ..
देखी जा रही थी ये पहली जंग , हर घरों के दूरदर्शन में ..
नतमस्तक हो रहे थे हर एक सर , उन शहीदों के दर्शन में ..
अमर रहेगी ये शौर्य गाथा , उन हर एक परमवीरों के नमन में ..
जिंदा हैं शहादत की हर वह लाशे , तिरंगे से लिपटे कफन में ..
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