Paras Mamgain   (ULJHAN)
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Joined 3 April 2021


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4 MAY AT 14:32

पानी के बुलबुलों की तरह पसर रहा है
फूटने को हैं फिर भी मचल रहा हैं 

हवाए कान में आकर फुसफुसाती है
तूफानों में घिरा दिया जोर से जल रहा है

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23 APR AT 21:06

खेत पहाड़ नदियां बियाबान 
ना जाने कहां अटकी जान
रिहझिम बारिश जब भी होती
याद मुझे आता खलियान 

गीली मिट्टी कच्चे घर है
लिपे गोबर से सजे घर है
यहां अदभुद लोगों का परिधान
हाथ जोड़ सबको सम्मान

मीठी बोली कच्चा ज्ञान 
आनन फानन में हैं जान 
जब छत को खपरैल से ढकता 
तभी आ जाता है तूफान

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20 APR AT 23:08

सभी पुराने ताने छुटे 
वक्त के सब पैमाने छुटे
कभी वहां जो हुआ करते थे
कहा वो दोस्त पुराने छुटे 

दुनिया की आपाधापी में
अपने थे बेगाने छुटे 
जिसका हम भी दम भरते थे
रंग कहा नाजाने छुटे 

कुछ पीछे कुछ आगे छुटे 
तौर तरीके पुराने छुटे
सोच सोच कर क्या ही होगा
बिछड़े सभी तराने छुटे

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18 APR AT 22:57

मैं रुक गया हु मक़ाम से थोड़ा पहले ही
शायद रुकना ही मेरी नियति है

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17 APR AT 22:37

आती हुई आवाज से कुछ पूछता हु
क्यों खाली कमरों में बिखरे शब्दों को सोचता हु

तेरे नाम का चर्चा है शहर भर में आजकल
शहर की भीड़ में खोया मैं खुद को पूछता हु

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17 APR AT 18:39

शब्द समंदर
शांत है अन्दर 
निकले बाहर
तो उठा बवंडर

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16 APR AT 22:04

ध्वनि अब शांत हुई मुख की 
जिव्हा ने विश्राम मांगा है 
सपनो में कोहराम मचेगा
दो पल नींद का उधार मांगा है 

भीड़ में गुमसुम सा फिरता हु 
सपनो से अपनों का साथ मांगा है 
इस कदर झुलस रहा हु धूप में
मेघों से बरसने का सौगात मांगा है

आईने लूट गए भरे बाजार में
पर्दो ने आंखों का साथ मांगा है 
जो खोया हुआ है ढूंढ रहा हु उसे
कुछ अधजली चिट्ठियों का हिसाब मांगा है

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13 APR AT 11:19

तनिक भर भूल मेरी थी
क्षणिक भर की पहेली थी
कारवां वो अधूरा था
हुई कुछ उसमें देरी थी

संदेशा पड़ नहीं पाया
लिखावट पे भी भरमाया
लगा कोई लतीफा है
किसी ने यूंही भेजा है

हो गई देर अब बहुत थी
जब जाती हुई दिखी गाड़ी
उसमें थी चीज हमारी
बिछड़ने की थी तैयारी 

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12 APR AT 0:11

तू चाहे कितना भी मुस्कुराले लेकिन
दाग मेरे सीने में रहेगा अनंत तक यू ही

खुदा करे तेरी खुशियां यू ही खुशहाल रहे
धड़कती रहेगी तेरे सीने में मेरी धड़कने यू ही

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10 APR AT 22:58

मेरे आंगन की धूप चमकती
मृदुलता बीखराती है 

कोमलता गालों पे छनकर 
चुनर सी बलखाती है

घुंघराली फिर लटे फिसलती
कांधों पे इतराती है

सूरज की लालिमा सी दिखती 
कितनी मन को भाती है

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