कुछ भी तो नहीं जो साथ जाएगा
फिर भी बटोरने से मन भरता नहीं
हरदिन ही कोई निकल रहा अकेला
फिर भी ये मन भला क्यों डरता नहीं ?-
दोष उसमें है, गलती भी उसकी है
रे मन ! ठहर जा कितना भगायेगा ?
भरमा के, बहका के तू थकता नहीं?
दुनिया के कितने चक्कर लगवायेगा?-
जितनी बची है
उससे ज़्यादा बीता चुके
पहले भी भागे
अब भी कहाँ है रुके
ये जीवन भी क्या
फिर से कोरा ही रहेगा
इस मन पे क्या कभी
श्याम रंग न चढ़ेगा-
नाम तुम्हारा जिह्वा पर
मर्यादा जीवन में उतरे
हे राम तुम्हारी करुणा
जन जन पर ही बिखरे-
छँटा विषाद,फैला प्रकाश
अवध में लौट आए हैं राम
हे पूरनकाम हे चिर सुखधाम
हमारे हृदय भी करें विश्राम-
संगत की रंगत तो चढ़नी ही है
हरकोई नहीं लंका का विभीषण
वाणी का, मन का, विचारों का
संग से ही तो होता सबका सिंचन
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हर चीज़ यहाँ निर्धारित
कुछ भी न होता संयोग
अपना ही किया होता हर
हानि लाभ मिलन वियोग
भटक रहे जाने कब से लिए
अपने अपने हिस्से का भोग
जोड़ ले पिता से टूटा नाता
यही तो मानव का परम योग-
चलते रहना ज़रूरी है
बाधाएँ आयी हैं तो जाएँगी भी
समंदर में नौका उतारा तो
लहरें तो इससे टकराएँगी ही
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हार के बैठ जाने से
मंज़िल कभी मिलती नहीं
सफ़र में रूक जानेवाला
रह जाता वहीं का वहीं-
दूर भी कहीं उसके होने भर से
जीना आसान हो जाता है
उसके जाने के बाद सहसा ही
सब बड़ा वीरान हो जाता है-