दिन और रात के कई फेरों के बाद भी
जब तू हार न मानेगा,
स्वयं को पहचान जब तू
चुनौतियों को भार न मानेगा।
तब धरती मुस्कुरा कर रास्ता देगी
तुझे बाहर आने को,
देखना, सूर्य स्वयं आएगा, तेरा हाथ थाम
तुझे ऊपर उठाने को।
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Music teacher at K... read more
समझदार बचपना
क़ायम है अल्हड़पन वैसा ही
अब भी उसकी फ़ितरत में,
बस वक़्त के साथ बचपना उसका-
कुछ समझदार हो गया है।
अब पता है इसे कि-
कब चेहरे पे आमद कर नाज़-नखरे से इठलाना है,
कब लिबास-ए-उम्र में फिर ख़ुद को लुकना-छुपाना है।-
Nature cannot be imperfect.
If there is something you find as faulty in it,
there must be something spectacular your eyes have missed to notice.-
शब्द तुम्हारे
तुम जो कहते हो
होता है कितना सरल, कितना महीन।
ये शब्द तुम्हारे-
इतने सरल, सीधे,
मानों इनका कोई अर्थ ही न हो।
और यदि अर्थ निकालने बैठें इनका,
तो मुस्कुराहट, स्नेह, दीवानापन,
या अर्थ निकलेगा बचपन,
चुलबुलापन या नयापन।
शब्द छलकते है जब
तुम्हारे अधरों से,
तब वे निश्छल
बन कर गिरते है
मन की मिट्टी पर,
और भर देतें है इसमें
पहली बारिश का सा
सौंधापन।
जो, मैं शब्द होता तो
रहता आतुर,
तुम्हारे मुख से फुट पड़ने को।
जैसे दूर किसी
पर्वत से होता है
नैसर्गिक, पवित्र-
नदी का उद्गम।-
अपनापन
न कभी तुमने मेरी सफलता पर
बजाई है तालियाँ,
न तुम रोये हो मेरे संग,
दुःख की घड़ी में अपनों की तरह।
फिर भी,
आँगन के नीम!
तुम जानें क्यों
अपनों से ज़्यादा
अपने लगते हो।-
उल्टा-सीधा
उम्र क्या है इसकी,
महज़ चार ही साल का तो है
बेटा मेरा।
मगर
मैं सिखाता हूँ इसे
पढ़ाने के बहाने
दुनियादारी सारी-
ऊँचा-नीचा,
तेरा-मेरा
बड़ा-छोटा,
सगा-चचेरा।
जब वह
इन सब भेदभाव को
समझने-करने में हो जाएगा पारंगत
और उसकी होशियारी की आँच
आने लगेगी मुझ पर भी,
तब मैं फिर सोचूँगा कि यह क्या सीखा डाला?
वह भी पिता बनकर ही समझेगा दशा मेरी।
परंतु फिर अपनी संतान को दुनियाँ के साथ
क़दम से क़दम मिलाये चलने के लिए
वह भी उसे सिखाएगा-
अमीर-ग़रीब,
दूर-क़रीब।
धूप और छाया
अपना-पराया।-
कल की प्रतीक्षा
केवल इसलिए इंतिज़ार नहीं मुझे कल का,
कि कल समय नियति की कूँची से
जीवन के पोस्टर पर नए रंग बिखेरेगा,
कि कल पंछी कोई अनसुना मिश्र राग गाएँगे,
या कल बढ़ती फसलों का यौवन और निखरेगा।
या कल आज की गई मेहनत फलेगी,
और उस उमंग में सब पीड़ाएँ हाथ मलेंगी।
मैं कल की प्रतीक्षा इसलिए भी करता हूँ,
कि कल फिर क्षितिज पर दो चादरें हटाकर
बच्चों की पुस्तक जैसे मुस्कुराते सूरज
से यह धरती उजास पाएगी
और फिर नींद से जाग कर कल
अहा! गर्मागर्म चाय पी जाएगी।-
हम सब हिंदी है, हिंदी जानते भी है,
फिर भी अपनी मानसिकता का अन्य विदेशी भाषाओं से नित सिंचन करते है।
हम में से जो भाई-बहन अपनी भाषा का तिरस्कार कर दूसरी संस्कृति को घोट-घोट नित वही बनने को पीया करते है,
उनसे प्रश्न है कि कहाँ जाना चाहते हो भाई?
स्मरण रहे कि भाषा जब लुप्त होती है, तब अपने साथ ले जाती है कई आचार-विचार, जिन्होंने पुष्पित होने के लिए झेले है अगणित पतझड़। भाषा खो जाएगी, तो वे सांस्कृतिक-पुष्प भी झड़ जाएंगे और ये सब लुप्त हो गए तो अपना परिचय क्या दे पाओगे?
आइए, पहले स्वयं को हिंदी समझें, हिंदी बोलने के लिए मनाए,
फिर हिंदी दिवस मनाए।
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विशेषाधिकार
जीवन रूपी रंगमंच पर, हम और साथी कलाकार, सभी किसी पात्र की भूमिका में है। हम सब जैसा भी अच्छा-बुरा अभिनय कर के इस नाटक को जिस भी ओर ले जा रहे है;
केवल लेखन ही यह विशेषाधिकार प्रदान करता है कि हम दर्शकदीर्घा में बैठ कर नाटक का पूरा आनंद लें सकें, उसमें होने वाली त्रुटियों का विश्लेषण कर सकें, स्वयं को अभिनय करता हुआ देख सकें और पुनः नाटक में सम्मिलित हो जाएँ।
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