।। कुछ देर ।।
कुछ देर अगर मैं रूक भी जाऊं,
तो यादें ही बस ठहरती है,
बाकी सारी बातें वर्तमान की धूमिल होती जाती है,
कुछ देर पलकें मूंदकर सो भी जाऊं,
तो ख्याब डेरे डालती है,
फिर से सूनी सड़कों पे मुलाकातें नजर आती है,
कुछ देर बारिंशो में भींग मैं जाऊं,
तो बूंदे मन को टटोलती है,
बाकी सब कुछ पल में सूख जाता है,
बस थोड़ी देर पलकें भींगी रह जाती है,
कुछ देर पहाड़ो पे चलकर निगाहें अपनी कर जाऊं,
नीचे सबकुछ हरा-भरा दिखता है,
बस सूखी अपनी जमीं ही लगती है,
कुछ देर बाद जब लिखकर पढ़ तुम्हे मैं जाऊं,
कोरे कागज पर शिकायतें मालूम होती है,
अल्फाज़ों को फिर से हवा छूकर गुजरती है ।।
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