कितना सुकून देता है माहताब चांदनी में
लाज़िमी है तेरा सुनसान होना साकी ।।
कि कई सांसें गुज़र जाती है सहर होने में।-
मैं भी बच्चों की तरह रोता हूं।
कभी माटी के घोड़े पर...।
तो कभी ह... read more
क्या तमाशा बना रखा है।
जिंदगी को भी निराशा बना रखा है।
कोई खलिश है तो मिटाओ उसे,
हर अदा को बेतहाशा बना रखा है।-
हिंदवी स्वराज्य हेतु स्थापना लिए।
बगावत कर दी हाथों में तलवार लिए।
कूदे समर में जब बाल अवस्था थी।
स्थापित किया साम्राज्य,
तब तानाशाही व्यवस्था थी।-
ये दस्तूर समझ लो ,या फिर मेरा कसूर समझ लो।
खुद की भूल समझ लो या फिर मेरी भूल समझ लो।-
घर से दूर गए घर को घर बनाने के लिए।
सब छुट गए ,जब गए पैसे कमाने के लिए।।
मुनासिब नहीं मिलन मिलाप किसी से।
बहुत हो गए दिन,याद आते हैं सभी, भुलाने के लिए।।
काफ़िला नहीं था मगर अपने तो थे साथ में।
यहां कोई नहीं विरह-वेदना में बुलाने के लिए।।
बे सबब है बहुत कुछ,पर कौन वक्त का साथी है।
पराए है ,पर कोई नहीं कुछ सुनाने के लिए।।
भला महसूस करें ,कोई अहसास मेरे।
मुमकिन है,पर रहा नहीं कुछ छिपाने के लिए।।-
जो हार जाये खुद से न हो मात ऐसी।
आंखों से बरसे गमी, न हो बर-सात ऐसी।
मुकर जाये जो खुद से न हो बात ऐसी।
मरहबा मरहबा करे सब,न हो जात ऐसी।।-
वाकिफ हूं सच से फिर भी ख़ामोशी में जी लेता हूं।
बना के हालात-ए-मुश्किले मुफलिसी में जी लेता हूं।
नही रहा अब अदावतो को वो दौर........।
ग़ैर-ओ-गुरूबत मिटा के हमनशीं में जी लेता हूं।
कदर इसकी उसकी कुछ नहीं, सब फ़साना है।
फकत जरूरत के लिए ज़रूरत है, बाकी बहाना है।
कुछ नहीं होता, होके हिजरत में सिवा तन्हाई के।
वकत कैसा भी हो,गम या हसी में जी लेता हूं।
हिज़्र में डूबने को काफी नहीं सिर्फ मयखाना।
ग़मजदी में दो-चार घूंट, मयकसी के पी लेता हूं।
एतमाद हो हमें अपने आप पर ऐसा हरगिज नहीं।
भूला के सारे मर्म, ख्याल-ए-रहीसी में जी लेता हूं।
दोजख मिले या मिले जन्नत फिकर नहीं है।
ईतमिनान होके जिंदगी, मदहोशी में जी लेता हूं।-
चाहत भी धड़कन सी हो रही है।
जैसे आती है वैसे ही जाती रही है।
कहां नसीब है सबका पूरा होना।
कुछ मुक्कमल तो कुछ अधूरी सी रहीं हैं।-
यूं तो कुछ बाकी नहीं कसर, असर होने में।
देर नहीं लगती , बर्बादी की खबर होने में।।
कोई हद नहीं हमारी कारगुज़ारियों का।
हर सिला पे गुमां हैं बशर, फकर होने में।।
महजूरी न हयात में,हो तो बस खालिक़ की।
उमर है मामूली सी,की गुजर है पहर होने में।।
अहद-ए-जुबां अच्छा है शहद सा होना वरना।
महदूद नहींं आदमी बातों-बातों पर जहर होने में।।
मुंसिफ क्या तय करेगा गुनाह सिवा रहबर के।
मुगालते में है जग सारा,उसपर नजर होने में।।
ऐ नूर-ए-इलाही हम तो सिर्फ इक वादी है।
अक्सर वक्त जाया कर देते हैं दर-बदर होने में।।
हमको मालूम है दस्तूर हर गुल-ए-ख़्वाब का।
फिर भी मीनारें बना लेते है, खत्म सफर होने में।।-
मै इस तरह बेइंतहा हो जाता हूं।
कि हरदम तन्हा-तन्हा लहराता हूं।।
कभी ख्वाबों में, कभी बेचैनी में।
खुद को कहां-कहां तरसाता हूँ।।
मनोहर चित को कहीं रमाया नहीं ।
होके बेताब यहां-वहां जाता हूँ ।।
"फक्कड़" हुआ न सनम आपका।
बिन आपके जहां-तहां गाता हूं।।
की मेरा भी अब आसरा हो।
खुद को बहुत जपा-तपा पाता हूं।।-