ज़िन्दगी में कुछ अजनबियों
को अपना मान लिया था
साथ-साथ अपने राज का
थैला उन्हें थमा दिया था
उठते-बैठते, सोते-जागते
उनके नाम को अपनी रूद्राक्ष
माला बना लिया था
अपने सपनो की दुनियां में
उन्हें अलंकार समझ सजा लिया था
अपना ताबीज़ बना उन्हें
दुख-सुख में खुदा मान लिया था
वो अज़नबी दोस्त ही तो थे
जिन्हें अपना मान लिया था
सिर्फ वो ही तो थे जिन्हें
अपने अंत:कारण में उतार लिया था
पर वक्त के साथ वो अज़नबी
फिर अज़नबी बन गए
देखो ना जितना पास नही थे
उसे ज्यादा दूर हो गए
एक वो दोस्ती ही तो थी जिन्हें अपना
मान रहे थे, और अब वो अपने
कही भाग रहे थे।
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