palak Gupta   (guptaji_writes)
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Joined 28 October 2018


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25 JUN 2022 AT 12:23

शिकन माथे पर ले के जिया जाएगा कैसे
दौर जो बीत गया लौट कर आएगा कैसे

ताउम्र जो तरसा हो एक निवाले के लिए
भर के थाली सजा दो तो वो खायेगा कैसे

जिसकी ज़ुबा पर अरसे से लगा हो ताला
गीत आज़ादी के भला वो गाएगा कैसे

जिस की आँख आँसुओ से भरी रही ताउम्र
वो शख्स भला खुल के मुस्कुराएगा कैसे


एक दफा भी तुमने सदा न दी जिसे
वो भला मुड़ के तेरी ओर आएगा कैसे

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5 MAY 2022 AT 0:18

चेहरा यूँ ही नहीं मेरा बे नूर हुआ जा रहा है
कोई है जो घर से अपने दूर हुआ जा रहा है।

ज्यों ही कदम रखता हूँ दहलीज़ लांघने को
भीतर खींचता सा कोई सुरूर हुआ जा रहा है।

किसे शौक है गैरो के बीच रहने का,मगर
बेहतरी के लिए कोई मजबूर हुआ जा रहा है।

लौट आऊँगा जल्द इस बात का यकीन है,मगर
वक़्त को इस फासले का ग़ुरूर हुआ जा रहा है।

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4 NOV 2021 AT 9:00

रोशनी जब चीर कर अँधेरे को राख कर देती है,
अच्छाई जब पूरी ताक़त समेट के
बुराई को खाक़ कर देती है,
तब दीवाली होती है।
जब छोटा सा दिया तूफ़ानी हवाओं से लड़ जाता है,
अपनी लौ से जब हर अँधेरे कोने को रौशन कर जाता है,
तब दीवाली होती है।
यह वो वक़्त होता है,जब खुशियाँ
दस्तक देती है दरवाज़े पर
और जब हम खुशियाँ समेट के बिखेर देते है
तब दीवाली होती है।

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2 NOV 2021 AT 19:48

हम सारी उम्र अपने ही एक सफर में रहे,
यानी कि बंद कमरे में अपने घर में रहे।

निडर थे भूत प्रेतों से डर नहीं था तनिक भी,
बस एक अपनी ही परछाई से उम्रभर डर कर रहे।

हमनें कोशिशें तमाम की सारे हुनर रखने की,
मगर परखने वालों से हम सदैव ही कमतर रहे।

यूँ तो दौलत काफ़ी थी तमाम शौकों के लिए
मगर कुछ ऐसे कर्ज़ है जिसकी किश्तें हम भर रहे।

अपनी शराफत के लिए सारे ज़माने ने जाना हमें
बात यह कि हर गुनाह के इल्ज़ाम हमारे सिर रहे।

Guptaji_writes


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2 NOV 2021 AT 19:47

हम सारी उम्र अपने ही एक सफर में रहे,
यानी कि बंद कमरे में अपने घर में रहे।

निडर थे भूत प्रेतों से डर नहीं था तनिक भी,
बस एक अपनी ही परछाई से उम्रभर डर कर रहे।

हमनें कोशिशें तमाम की सारे हुनर रखने की,
मगर परखने वालों से हम सदैव ही कमतर रहे।

यूँ तो दौलत काफ़ी थी तमाम शौकों के लिए
मगर कुछ ऐसे कर्ज़ है जिसके किश्तें हम भर रहे।

अपनी शराफत के लिए सारे ज़माने ने जाना हमें
बात यह कि हर गुनाह के इल्ज़ाम हमारे सिर रहे।

Guptaji_writes


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14 JUL 2021 AT 16:16

ज़माने के खूबसूरत जितने नज़ारे हुए
हमने आँख भर देखा तुम्हें और सारे हमारे हुए।

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14 JUL 2021 AT 16:15

उसने होठों पर अपनी हँसी को दिखा रक्खा है,
यानी कि ग़म ज़माने भर का छुपा रक्खा है,
माहिर है बिना नक़ाब के खुद को छुपाने के हुनर में,
असलियत कुछ मगर चेहरा कुछ दिखा रक्खा है।

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6 JUL 2021 AT 13:06

जिन दरख्तों को काटने चले हो तुम
उन दरख्तों से पहले पूछा है क्या

फूल ,फल,शाखें सभी है ज़द में
उनके पत्तों से पहले पूछा है क्या।

कई है जिनके खुदा बसते है उनमें
उनके भक्तों से पहले पूछा है क्या।

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25 JUN 2021 AT 16:39

समाज की सभ्यता
तब थी सबसे सभ्य
जब एक लड़के ने हाथ उठाया लड़की
पर और कहा प्रेम है।
और उस वक़्त वो सभ्यता असभ्य हो गई
जब थामा किसी लड़की का हाथ किसी लड़की ने
पुचकारा उसे प्रेम से उसी तरह
जिस तरह एक प्रेमी को पुचकारना चाहिए।


समाज के संस्कार
तब उतने कमज़ोर न हुए
जब एक संतान ने
अपने ही माता पिता को
घर से निकाल दिया,
मगर तब दूषित हुए संस्कार
जब प्रेम करने वाला एक लड़का
अपने प्रेमी लड़के को ले आया घर।
और प्रेम से माँगा बस आशीर्वाद।


समाज से उतना ही स्वीकारी
सभ्यता और संभाले उतने ही संस्कार
जिससे वो बना सके
उसके जैसे और सामाजिक प्राणी।

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21 JUN 2021 AT 10:22

हमारा सभ्य समाज
ऊपर बैठे इंसान को इतना
ऊपर चढ़ाता है
की वो भूल जाए
नीचे देखना,
और नीचे बैठे इंसान को
इतना दबाता है
की वो भूल जाये
ऊपर उठना।
और जो बीच में है
उसे छोड़ देता है
नज़रअंदाज़ होने के लिए।
हमारा सभ्य समाज।

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