मेरा ही दिल नाशाद है मुझमें
उदासियों की खुशियाँ आबाद हैं मुझमें
तारीकियों का ग़ुरूर हूँ मैं
ढलते हुए आफ़ताब हैं मुझमें
नौह-ए-मर्सियों का सरापा हूँ मैं
मय्यतों के सैलाब हैं मुझमें
मुझे आते हैं कई चेहरे नज़र
पहने हुए सौ नक़ाब मुझमें-
मक़ाम-ए-क़र्ब की यही रविश रहेगी
Insta - paikar_mustafa
Lawyer.
Sea... read more
Regrets, longings, failures, brisk victories, drowned expectations, reckless optimism, and the past which failed to catch up with my incessant treading, crawling, and destined life.
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दरयाफ़्ता हूँ और मोहब्बत में हूँ
ख़ुद को नापसंद हूँ अजीब हालत में हूँ
मेरे पास हैं सौ वजहें फ़ना हो जाने की
इसी वजह से अब तक बक़ा मैं हूँ
आगे बढ़ता हूँ तो माज़ी लिपटता है
पीछे मुड़कर भी मुस्तक़बिल की तलाश में हूँ
मेरे ग़म की दवा है और एक ग़म
इसलिए जहाँ रहता हूँ वहाँ होता नहीं हूँ
ईमानदारी से करता हूँ पेशा-ए-शिक़वागोई
सुनने वालों से हरगिज़ कहता नहीं हूँ
हुआ ना अपने नाम पे क्या-क्या मंसूब “पैकर"
मान लेना चाहिए आदमी मैं भला नहीं हूँ-
लफ़्ज़ों की रवानी याद रखता हूँ
मैं अपनो को ज़बानी याद रखता हूँ।
मैख़ाने में साक़ी को जब तिशना-लब पाता हूँ
मैं फिर तौबा करके पीना याद रखता हूँ।
वाइज़ की नसीहत बख़ूबी सुनता हूँ
और उस चहरे की हैबत याद रखता हूँ
कहानियाँ भुला देता हूं अक्सर “पैकर”
मैं किरदारों को याद रखता हूँ।-
मुख़्तसर ही रखता मैं तअल्लुक़ ग़ैरों से
मेरी अपने हल्क़े में ही कब किसी से बनी है
अर्ज़-ए-दिल इंतेहाँ-ए-शौक़ ओ हस्ती-ए-नाक़ाम
मेरे घर की इमारत में कहाँ कोई कमी है
पास-ए-वफ़ा, जब्र-ए-दौर ओ उम्मीद ए सुख़न
मेरे चाहने वालों में एक मेरी ही कमी है
रक़्स-ए-तन्हाई, दीद-ए-रुसवाई, मिन्नत-ए-रिहाई
आज तड़के से मेरी आँखों में हल्की सी नमी है।-
मुख़्तसर ही रखता हूँ तअल्लुक़ मैं ग़ैरों से
मेरी अपने हल्क़े में ही कब किसी से बनी है
अर्ज़-ए-दिल, इंतेहा-ए-शौक़ ओ हस्ती-ए-नाक़ाम
मेरे घर की इमारत में कहाँ कोई कमी है
पास-ए-वफ़ा, जब्र-ए-दौर और वास्ता-ए-सुख़न
मेरे चाहने वालो में एक मेरी ही कमी है
रक़्स-ए-तन्हाई, मिन्नत-ए-रिहाई और दीद-ए-आशनाई
आज तड़के से मेरी आँखों में हलकी सी नमी है
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While departing she said firmly,
“ First love always hurts.”
all I wanted to tell her that
She was my love but not the first
not the first!.-
अबके फ़ारिग़ हुआ तो कुछ सोचूँगा
ग़म तो सारे मना चुका कबका
तुझसे बिछड़ने का वक़्त है ये
तेरे क़रीब तो आ चुका कबका
अपनी वफाई पर हो उठे नाज़ मुझे
ये ख़याल तो भुला चुका कबका
अब तिरी बाँहों का तिलिस्म-ए-असर नहीं चलता
इतना तो दिल को मना चुका कबका
करे कोई याद "पैकर" शख़्स अच्छा था
इतनी पहचान तो बना चुका कबका
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to the exhortations which the
light of the day faints in the chaos.-