खुद से खुद को ही खोने से मै इमरोज डरने लगी हूँ,
शायद न चाहते हुए भी मै कहीं न कहीं मरने लगी हूँ!
इज़्तिराब,खौफ,रश़्क,बेरुखी,सब तो मुझे जमाने से,
कुछ ख़्याल लेकर अब नफरत मे ही मै रहने लगी हूँ!
कभी बरसात कभी वीरानियाँ कभी खिजाएं भी हैं,
सब बदलता ये सच भी इकरोज अब कहने लगी हूं!
रहती थी कभी सिर्फ़ पल दो पल मे ही मेरी बैचैनी,
तो क्यूं मै इमरोज रात दिन ये बेचैनी सहने लगी हूँ!
चाहती हूँ इकरोज सुकून से लम्बी नींद इन आँखों मे,
लेकिन क्या है कई सवालों के वास्ते मै जगने लगी हूँ!
फकत अपने जहाँ से ही थी कभी तमाम शिकायतें ,
अब खुदा से भी खुदा की शिकायतें मै करने लगी हूँ!
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