P.K. Sharma Rahul   (राहुल)
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Joined 5 February 2021


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13 OCT 2022 AT 15:15

#चाँद के दीद-ए-वसल चाँद ने #दीदार किया।
जन्मों-जनम का #बंधन, हमने स्वीकार किया।

मन से मन तक सब अर्पण करके #सुहाग पर,
नारी ने पुन: पुन: नख से शिख #शृंगार किया।

कंगन, कलाई, कर, केश #कल्लवित किये हुए,
पग पायलिया पट पहन शिखर अभिषार लिया।

मन मुखर, मुदित मंजूषित मद में विचरित तथा,
प्रेम अनुराग से प्रद्दीपत होठों से अतिषार पिया।

करुण हृदय से आह्लादित उंमादी सा बदन प्रिये,
हे प्रियवर! तुमको अभिनंदन का त्योहार किया।

🌹 करवा चौथ की हार्दिक शुभकामनायें 🌹

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4 OCT 2022 AT 11:03

🌲 मुशाफिर हैं हम, मुशाफिर हो तुम, ये मुशाफिर, मुशाफिर अभी रहने दो।
🌲 थक गये हैं बहुत, अब घड़ी दो घड़ी, अपने चिलमन की छांव में भी रहने दो।

🌲 इस कदर हमने तुमको पुकारा नहीं, हां! कभी फिर कभी याद आती तो थी,
🌲 दिल जले, फिर चले, और चलते रहे, चलते चलते चमन में भी कभी रहने दो।

🌲 तेरी इल्त्ज़ा, हां! तेरी आरज़ू, बस तेरी ही जरूरत रही है सदां,
🌲 अब जो तुझसे कहूँ, आ चलें चल कहीं, कम से कम इतना तो_ कह लेने दो।

🌲 कभी देखूँ इधर या देखूँ उधर, हां कहीं भी जो देखूँ, तुझे खोज लूँ,
🌲 अब रहने दो ये सब, कि जग क्या कहे, मुझको दिल के खयालों को कह लेने दो।

🌲 आ! यहीं पे कहीं बैठ जाते हैं ना, कुछ तेरी सुनें और कहें अपनी भी,
🌲 कैसे मुद्दत यूँ ही, देख, गुजरती गयीं, अब मुलाकात को भी 'बसर' लेने दो।

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8 SEP 2022 AT 20:14

तेरे गुलाब से चेहरे को , क्या रंग कहूँ ________।

कि देखा है मचलते हुए हमने "हिना" को तेरे लिए।

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6 JUL 2022 AT 17:31

संवाद-रहित , उन्माद अधिक।
हृदय व्याकुल, विषाद अधिक।
उत्कंठ विवेचन व्याध अधिक।
मर्मज्ञ कहो क्यूँ? वाद अधिक।

छलनी पग, राह कठिन पथरी,
कोई कह दे! रुक जाये खबरी,
है खबर अगर यूँ, मन-माफ़िक,
पग चले एक ना आध पथिक।

विस्मृत-सृजन, भ्रमित हरि-जन,
एक प्रेम-पिपासा, उधृत है मन।
अधेड़वय! क्षुदामय अतृप्तमन:,
किसलय में हुआ अपराधाधिक।

संभाव ताव-ओ-तृष्णा अधिभूत,
संभव सह मन अवसाद अधिक।

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21 JUN 2022 AT 23:44

हद से बुलन्द_, आचमन है तुम्हारा।
तुम्हारा हिये ही पुर चमन है हमारा।

तो रोको हुए बहते नीर चक्षुऔँ को,
ये अश्रु ओ समंदर दुश्मन है हमारा।

अगर बूंद अश्रु जमीं पे गिर गये तो,
असम्भव सहन आव्रजन है हमारा।

मृदु कण्ठ कोमल हृदय और लज्जा,
निसंकोची वाणी विवरण है तुम्हारा।

हमें क्या हमारी तो हठ है हाँ! सठ हैं,
तुम से प्रेम-निष्ठा आमरण है हमारा।

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21 JUN 2022 AT 15:58

जब नींम अन्धेरा _ _ _ _ छाता था।
ये गुमसुम सा चेहरा खिल जाता था।
अब खूब करेंगे _ _ _, मन से मन की।
बातों का, यही _ _ _ _ _ अहाता था।
भँवरे की गुन _ __, मुरली की धुन_ _।
तब खूब, हमें _ _ _ _ सुहाता था _ _ ।
हर शाम ढले _ _ उन राहों पे _ _ 'राही' रहता था "किस" धुन में।

हर बार दशहरा आम ही था,
इस बार ना था कुछ काम ही था।
जिस चाहत की पहचान ना थी,
'वो' चाह _ _ नहीं अंजाम ही था।
चाहत को जब_ _ चाहा छूना,
वो चाह नहीं, बस _ "नाम" ही था।
उस "नाम" को रखा सर - आंखों पे, बस यही बचा था हासिल में।

अब कैसे कहें? और किससे कहें?
कुछ दूर अधिक, कुछ_ पास नहीं।
फिर भी ये जीवन चलता है,चलता रह,
रुक ना _ _ _ _, कुछ खास_ नहीं।
जो बीत गया, वो _ _ _ प्रेम ही था,
हां! प्रेमी _ तो तेरा _ _ उदास नहीं?
इस जंगल में, कर मंगल फिर से, ये 'रण' है तेरा, तेरे मन में।

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21 JUN 2022 AT 15:56

मेरा जीवन _ _ एक तड़प _ _ एक "हूक" सी उठती है दिल में।
हां! यादों के साये में, फिर से, खिल धूप सी उठती, झिलमिल में।

वो जल _ जंगल, जड़ जीवन,
एक जंग छिड़ी थी इस मन में।
कब आएगा? वो दिन फिर से,
कब देखूँगा फिर _ _ दर्पण मैं।
रह_ _ शाम सबेरे _ _ यादों में,
कर दूंगा सब कुछ_ अर्पण मैं।
उन राहों को तकते तकते, कब गुजरा जीवन? जीवन में।

जब दौड़े - दौड़े जाते थे _ _।
और धीरे - धीरे आते थे _ _।
कुछ सोच - सोच मुस्काते थे।
कम से कम, दर्शन _ पाते थे।
पीछे - पीछे जाना _ _ _ उनके।
फिर पीछे ही छिप जाना उनके।
ये कशिश कसम से कहती है, ना कहना कभी कुछ महफिल में।

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20 JUN 2022 AT 8:24

जिन्हें गम ने ना पूछा हो.... वो क्या जानें खुशी क्या है.

मोहब्बत के तरन्नुम में... फना क्या है_.... हंसी क्या है.

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17 JUN 2022 AT 23:22

"वो" इस तरह से, छुपा के_, गये हैं "सदमों" को।
कि जैसे शाम और शराब छुपाती है ज़ख्मों को।

यूँ ही दिन भर उदास घूमे, और तलाश करें हम,
कहीं तो हो 'दिलरुबा' जो करे खास नज्मों को।

यूँ आज फिर से चले हम, और बस चलते रहे हैं,
किसे सुनायें किसे कहें हम, बेजुबान बज़्मों को।

वो एक शरीफों सा घर और उसकी चार दिवारी,
नहीं है कोई मयस्सर, उसकी अधुरी_, रस्मों को।

लो! आज हम भी चले हैं, कहीं भी खो जायें तो,
करेंगे क्या? जो ना मिला कोई प्यासा चश्मों को।

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15 JUN 2022 AT 0:36

आवारा हूँ! बादल बनके , फिरता हूँ यहां____ मारा-मारा।
कोई इश्क मिले और इश्क कहे हो इश्क मेरा जीवन सारा।

ऐसे तो जमाना जालिम है, फिर इश्क तो है और होगा भी,
पर 'इश्क' कहें हम, हां! दिलबर, सारा जीवन तुझपे वारा।

यूँ वक्त बदलता है सब का, जो चाह रहे तो, हर राह मिले,
राहों के निर्जन जंगल में, बन हमराह चलें! चल दिलदारा।

हमने _ जब स्वप्न सलौने देखे थे, देखें हैं परी बने हो तुम।
हम! बनके उड़नखटोला सा, ले उड़े तुम्हें, ओ_ शहकारा।

यूँ इश्क- इश्क करते करते, फिर नींद खुली और जाग गये,
जागे_ तो घुप्प अन्धेरा था, हो निश्चित_ सोया था संसारा।

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